चुनाव जरूरी या इंसानों की जिंदगी !

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लखनऊ। लखनऊ में मंगलवार को केंद्रीय चुनाव आयोग के साथ सभी राजनीतिक दलों की बैठक हुयी। एक सुर में इन पार्टियों ने तय वक्त पर चुनाव कराने की बात कही। उनका कहना था कि कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुये निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक निर्वाचन कराये जाने चाहिये। यदि चुनाव आयोग को सलाह जंच गयी तो पांच प्रदेशों में कोरोना की भयावह सुनामी के दौर का सामना करने को तैयार हो जाइये। दूसरी लहर के समय इंसान की मौत कीड़े-मकोड़ों की तरह हुयी थी। सभी के जेहन में यादें जिंदा है। जब उत्तर प्रदेश में कुंम्भ से लाखों श्रद्धालू कोरोना का शिकार होकर लौटे थे और अनेक राज्यों में अचानक आंकड़ा बढ़ गया था। इस धार्मिक जलसे के पहले सप्ताह में ही जांच के बाद पांच हजार से ज्यादा लोग संक्रमित निकले थे। इनमें करीब सौ संत महंत ही थे। एक महामंडलेश्वर भी जान गंवा बैठे थे। भोपाल के एक बड़े महंत की जान भी इसी वजह से गयी थी। उनके कई शिष्य संक्रमित हो गये थे। लाखों लोगों के बिना सतर्कता बरते समागम में हिस्सा लेने का खामियाजा हम देख चुके हैं। इसके बाद बंगाल चुनाव में भी गंभीर खतरा था। तृणमूल सरकार ने चुनाव आयोग से रैलियांए रोड शो और भीड़- भाड़ वाले चुनावी आयोजनों पर बंदिश लगाने की मांग की थी। लेकिन तीन चरणों तक उनकी मांग पर ध्यान नहीं दिया गया। अंतत: ममता बनर्जी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक तरफ ा अपनी रैलियां और सार्वजनिक कार्यक्रम रोक दिये। इसके बाद हम देख रहे हैं कि उत्तर प्रदेश जैसे घनी आबादी वाले राज्य में लाखों लोग सावधानी बरते बिना चुनाव प्रचार में हिस्सा ले रहे हैं। वे न मास्क का इस्तेमाल कर रहे हैं और न सामाजिक दूरी बना कर रख रहे हैं। विडंबना है कि अभी सारे संसार के वैज्ञानिक, डॉक्टर और शोधकर्ता इस पर माथापच्ची कर रहे हैं कि कोरोना का यह काल चीन की प्रयोगशाला में पैदा हुआ था या नहीं। इस पर निष्कर्ष आना बाकी है, मगर यह तो तय है कि विश्व में इस संक्रमण का विस्तार चीन से ही हुआ था और हिन्दुस्तान के जिन प्रदेशों में चुनाव सिर पर हैंए वे सभी अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर हैं।
तीन राज्यों के करोड़ों नागरिक तो एक तरह से चीन की सीमा से सटे हुये ही हैं। हम रैलियों को दोष देते रहें और किसी भयानक साजिश के शिकार हो जायें तो कोई क्या करेगा? फि र भी जान बूझकर मौत के मुंह में धकेलने की राय सियासी पार्टियां और चुनाव आयोग क्यों बना रहे हैं? हालांकि आयोग ने अब तक कोई निर्णय नहीं सुनाया है, मगर सारे दल और प्रशासन पक्ष में हों तो कोई भी आयोग क्या करेगा? अब टीएन शेषन जैसा अवतारी मुख्य चुनाव आयुक्त दोबारा नहीं आयेगा। यह आशंका भी जतायी जा रही है कि चुनाव आयोग संवैधानिक प्रावधानों की दुहाई देकर निर्धारित तारीखों में चुनाव कराने का फैसला ले सकता है। यह आशंका भी जताई जा रही है कि चुनाव आयोग संवैधानिक प्रावधानों की दुहाई देकर निर्धारित तारीखों में चुनाव कराने का फैसला ले सकता है। भारतीय संविधान असाधारण परिस्थितियों में चुनाव टालने की अनुमति भी देता है। जंग की स्थिति में, आंतरिक अशांति या संकट के दरम्यान भी चुनाव टालने का प्रावधान है। इसी बरस कोरोना के चलते आयोग ने कुछ उप चुनाव तथा राज्यसभा चुनाव टाले भी हैं। भोपाल गैस त्रासदी के समय भी निर्वाचन क्षेत्र में लोकसभा चुनाव टाला गया था। इसके बाद अयोध्या में विवादित ढांचा गिराये जाने के बाद अशांति के चलते विधानसभा चुनाव टाले गये थे। मध्यप्रदेश में तो सब कुछ शांत और सामान्य हो गया था। फि र भी कई बार किश्तों में राष्ट्र पति शासन राज्य में लगाया जाता रहा। यानी संविधान की दुहाई देकर जबरन चुनाव थोपना अवाम के साथ नाइंसाफ ी है। लोकतंत्र करोड़ों हिन्दुस्तानियों ने रचा है। संविधान भारतीयों ने बनाया है। केंद्रीय चुनाव आयोग की रिपोर्टिंग उन भारतीयों के प्रति है, किसी सियासी दल या सरकार के प्रति नहीं। वैसे सियासी पार्टियों के चुनाव समय पर कराने की राय के पीछे की कहानी छिपी नहीं है। वे अब तक करोड़ों रूपये प्रचार अभियान पर फूं क चुकी हैं। चुनाव टालने पर वे मिट्टी में मिल जायेंगे। इसके अलावा पक्ष और प्रतिपक्ष के अपने अपने सोच हैं। विपक्ष का ख्याल है कि यह समय बीजेपी को सत्ता से बाहर करने का श्रेष्ठतम अवसर है और पक्ष यानी भारतीय जनता पार्टी का विचार है कि बीते महीनों से प्रधानमंत्री अपनी धुआंधार रैलियों से उसके पक्ष में मानस बना चुके हैं। चुनाव आगे बढऩे पर यह मतदाताओं के मानस पटल से यह सब गायब हो जायेगा। जिन योजनाओं का उद्घाटन या शुभारंभ प्रधानमंत्री कर चुके हैं, वे अब दोबारा तो नहीं कराये जा सकते। एक अप्रिय आशंका भी यह हो सकती है कि यदि वाकई कोरोना की तीसरी लहर दूसरी से भी भयावह हुयी तो फिर भगवान ही मालिक है। वक्त का तकाजा है कि मुल्क के करोड़ों लोगों की हिफ ाजत को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाये।

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