14 साल बाद जेल से बाहर डॉनः मुख्तार अंसारी से तीन दशक पुरानी है अदावत

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मुख्तार अंसारी से मुकाबले को राजनीति में कदम रखा

पिता की हत्या ने अपराध की दुनिया में धकेला

लखनऊ

माफिया मुख्तार अंसारी के जानी दुश्मन और सबसे बड़े विरोधी ब्रजेश सिंह उर्फ अरुण कुमार सिंह 14 साल बाद गुरुवार की शाम जेल से रिहा हो गए। बुधवार को ही उन्हें हाईकोर्ट से मुख्तार अंसारी पर हुए हमले के मामले में जमानत मिली थी। ब्रजेश सिंह की पूरी जिंदगी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है। ब्रजेश सिंह पर एक समय हत्या, हत्या के प्रयास समेत दर्जनों केस थे। यही नहीं उन पर मकोका यानी महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट, टाडा यानी टेररिस्ट एंड डिसरप्टिव एक्टिविटीज एक्ट, गैगस्टर एक्ट, हत्या, हत्या की साजिश, दंगा भड़काने, वसूली और धोखे से जमीन हड़पने के मुकदमे दर्ज हुए थे।

 

पूर्वांचल में कभी सबसे बड़े माफिया डॉन के रूप में विख्यात ब्रजेश सिंह की मुख्तार अंसारी के गैंग से तीन दशक से भी ज्यादा समय से सीधी लड़ाई चली आ रही है। इस लड़ाई में अब तक दर्जनों लोगों की कुर्बानी हो चुकी है। दोनों ओर से ताबड़तोड़ गोलियां चलीं और सरेराह हत्याएं हुईं। पहली बार एके 47 का भी हत्या में इस्तेमाल इन्हीं दोनों गैंग के बीच हुआ। पूर्वांचल के छोटे-छोटे अपराधियों ने दोनों को ही अपना रोल मॉडल माना और कोई ब्रजेश सिंह के गैंग से जुड़ा तो कोई मुख्तार अंसारी के साथ जुड़ता रहा।

वाराणसी के धौरहरा गांव के रहने वाले ब्रजेश सिंह पढ़ाई में एवरेज थे। सिंचाई विभाग के कर्मचारी उनके पिता रविंद्र नाथ सिंह चाहते थे कि बेटा पढ़ाई में बढ़िया करे और आईएएस बने। ब्रजेश ने अपने पिता के सपने में जान डालने के लिए बीएससी में एडमिशन ले लिया। तभी जमीनी विवाद के चलते पिता की हत्या कर दी गई। 1984 के इस हत्याकांड के बाद ब्रजेश पिता के सपनों को भूल गए, इसके बाद उन्होंने घर छोड़ा और आरोप है कि यहीं से अपराध की दुनिया में पहुंच गए।

वाराणसी के धरहरा गांव के रहने वाले बृजेश सिंह का नाम 1984 में पहली बार हत्याकांड से जुड़ा। आरोप है कि पिता की हत्या का बदला लेने के लिए ब्रजेश सिंह ने हथियार उठाया। ब्रजेश सिंह के पिता रविंद्र सिंह की हत्या का आरोप लगा पड़ोस के पांचू पर। पांचू उस वक्त इलाके में सबसे पॉवरफुल हुआ करता था। आरोप है कि 1985 में ब्रजेश पांचू के घर गए, घर के बाहर पांचू के पिता हरिहर सिंह बैठे थे। साल में छिपाकर लाई गई बंदूक से उन्हें छलनी कर दिया।

सिकरौरा गांव में पूर्व प्रधान रामचंद्र यादव सहित 6 लोगों की हत्या कर दी गई। इस दौरान ब्रजेश को भी गोली लगी। पुलिस ने ब्रजेश को पकड़ लिया। फिर पुलिस ने ब्रजेश को इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया लेकिन वहां से वह फरार हो गया।
इस घटना के बाद से ब्रजेश लापता हो गए। ब्रजेश के मारे जाने की भी अफवाह उड़ी। हालांकि पुलिस को इस पर भरोसा नहीं था। हैरानी की बात ये थी कि पुलिस के पास ब्रजेश की कोई फोटो भी नहीं थी। एकमात्र जो फोटो थी वह पुरानी थी। इसके आधार पर ब्रजेश को पकड़ना बेहद मुश्किल था। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल को तीन साल बाद इस काम में कामयाबी मिल गई।

2008 में पुलिस ने उड़ीसा के भुवनेश्वर से ब्रजेश को गिरफ्तार कर लिया। ब्रजेश वहां अरुण कुमार नाम से रह रहे थे। हालांकि कहा जाता है कि यह गिरफ्तारी प्रायोजित थी। तीन सालों में ब्रजेश ने अंडरग्राउड होते हुए भी खुद को मजबूत कर लिया था। अब उन्हें पूर्वांचल में रहना था और मुख्तार गैंग का खात्मा करना था।

ब्रजेश सिंह के जिंदा होने की खबर मिलने और जेल में आने के बाद हत्याओं का दौर शुरू हो गया। दोनों गैंग में शामिल बदमाशों के बीच गैंगवार तेज हो गया। वाराणसी से लेकर गाजीपुर मऊ, जौनपुर और अन्य जिलों में गोलियां तड़तड़ाने लगीं। ब्रजेश के खास जिला पंचायत सदस्य अजय खलनायक की गाड़ी को निशाना बनाकर गोलियां दागी गईं, गाड़ी में पत्नी भी साथ थी। तीन गोली अजय और एक गोली पत्नी को लगी, हालांकि दोनों बच गए। ठीक दो महीने बाद 3 जुलाई को ब्रजेश के चचेरे भाई सतीश सिंह को सरेआम गोलियों से भून दिया गया। मुख्तार की राजनीति में रसूख को देखते हुए ब्रजेश सिंह ने भी कई राजनेताओं से संबंध बनाए।  2012 में खुद भी चंदौली की सैयदराजा सीट से विधानसभा का चुनाव लड़ा। हालांकि सपा की लहर में सपा प्रत्याशी मनोज सिंह से हार गए। ब्रजेश ने 2016 में वाराणसी सीट से एमएलसी के लिए दावा ठोंका। ब्रजेश से मुकाबले के लिए मनोज सिंह की बहन मीना सिंह मैदान में आईं। ब्रजेश ने मीना को हरा कर मनोज से बदला ले लिया।

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