पूर्वांचल में महिलाएं नहीं पुरुष करते हैं होलिका मैया की पूजा, कुछ ऐसी हैं होली की रस्में

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बलिया।पूर्वांचल और मिथिलांचल की होली का रंग बसंत पंचमी से ही चढ़ने लगता है। मिट्टी, पानी से होली खेलने के साथ बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद भी लिया जाता है। शहरों में रह रहे पूर्वांचल व मिथिलांचल के लोगों के मन में आज भी वहां की होली बसी है। होली नजदीक आते ही उन्हें उसकी याद आ जाती है। हालांकि इस बार होली कुछ जगहों पर 7 मार्च तो कुछ जगहों पर 8 मार्च को मनाई जा रही है। आइए जानते हैं पूर्वांचल और मिथिलांचल में किस तरह मनाई जाती है होली…

गांव में ढोल-ढपली लेकर घूमती हैं टोलियां
मिथिलांचल में होली की मस्ती बसंत पंचमी से ही छाने लगती है। मां सरस्वती की पूजा-अर्चना के बाद रंग-गुलाल लगाने का जो सिलसिला शुरू होता है, वह होली तक चलता है। शादी-ब्याह से जब बराती वापस जाते हैं तो हल्दी, रंग-गुलाल लगाकर उनको रवाना किया जाता है। रात को गांव में टोलियां ढोल-ढपली के साथ निकलती हैं व घर-घर जाकर होली के गीत गाती हैं। यह टोली रंग वाले दिन भी घर-घर जाती है। होलिका दहन वाले दिन गेंहू की बालियां भूनकर राम-राम बोलकर व गुलाल लगाकर एक-दूसरे को बांटी जाती है। अगले दिन होली का जो रंग चढ़ता है, वह वस्त्रों से उतर जाता है, मगर दिल से कभी नहीं उतरता है।

नए वस्त्र पहनकर खेलते हैं होली
पूर्वांचल की होली का तो अलग ही मजा है। होलिका दहन के समय उसकी परिक्रमा करते हुए होली के गीत गाए जाते हैं। एक-दूसरे को रंग-गुलाल लगाकर होली की बधाई देने के बाद ही सब अपने घर जाते हैं। अगले दिन सुबह ही सब अपने घरों से निकल जाते हैं और एक-दूसरे के घर जाते हैं। बुजुर्गों के पैरों में मिट्टी या रंग लगाकर उनका आशीर्वाद लेते हैं। दोपहर 12 बजे के बाद सभी नए वस्त्र पहनकर होली खेलने के लिए निकल पड़ते हैं, लेकिन 12 बजे के बाद होली सिर्फ गुलाल से ही खेली जाती है। हर घर के दरवाजे पर जाकर होली खेलने के बाद सभी धार्मिक स्थल पर एकत्रित होते हैं और होली के गीत गाते हैं।

होलिका मैया की पूजा करते हैं पुरुष
पूर्वांचल में होलिका मैया की पूजा महिलाएं नहीं पुरुष करते हैं। यहां पर तो पूजा दिन में होती है, लेकिन वहां रात में। पुरुष परिक्रमा कर मीठी पूरी से होलिका मैया की पूजा करते हैं। अगले दिन धूल, मिट्टी, कीचड, पानी व रंग से जमकर होली खेली जाती है। दोपहर के बाद फिर से होली खेली जाती है, लेकिन इस बार बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक नए वस्त्र पहनकर एक-दूसरे को गुलाल लगाते हैं। होलिका दहन वाले दिन पूर्वांचल में घर-घर में कढ़ी-चावल बनाने की परंपरा है। रंग वाले दिन के लिए घर-घर में उड़द की दाल के भल्ले बनाए जाते हैं। गुंजिया बनाने की परंपरा नहीं हैं। वहां पर गुंजिया के स्थान पर मालपुआ बनाया जाता है।

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