मनरेगा की जड़े ‘रामराज्य’ में हैं

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रघु ठाकुर
नई दिल्ली। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार योजना के भविष्य को लेकर देश में एक बार चर्चा फि र शुरू हुयी है। यह योजना मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में शुरू हुयी थी, परन्तु कहा जाता है कि वे इसे लागू करने के पक्षधर नहीं थे। विश्व बैंक से प्रभावित उनका मस्तिष्क और विचार ऐसी योजनाओं के पक्ष में नहीं हो सकते थे जिनमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनकी मशीनों की भूमिका न हो परन्तु यह एक प्रकार से उनकी अंतर्दलीय विवशता ही थी कि सारे प्रयास के बाद भी उन्हें इसे स्वीकार करना पड़ा था। वैसे तो भूख से बचाने और हर नागरिक को रोटी और रोजगार उपलब्ध कराने का दायित्व राजा का है। यह उपदेश भगवान राम ने भी दिया था। जब वे वनवास पर थे तथा उनके अनुज भरत जो अयोध्या के शासक थे, जब उनसे मिलने के लिये वन में गये तो राम ने उनसे जो प्रश्न पूछे थे वह प्रश्न मात्र नहीं थे, बल्कि नीति के सूत्र और निर्देश थे। राम-भरत संवाद रामायण में वर्णित है। जिसमें वह भरत से पूछते है कि राज्य में कोई भूखा तो नहीं सोता। राज्य में कोई दुखी तो नहीं है। और ऐसे ही अनेकों प्रश्न पूछकर श्रीराम ने नीति के सूत्र दिये थे। दरअसल मनरेगा भगवान राम के संदेश या अंर्तनिहित निर्देश से निकली एक योजना थी। कोई व्यक्ति चाहें कितनी भी कठिन परिस्थिति में हो, ग्रामीण क्षेत्र में उसे कोई न कोई रोजगार मिले ताकि वह भूख से मुक्त हो और जीवन यापन कर सके।


मनरेगा कानून संसद में आने के बाद पहली बार में पारित नहीं हो सका था और उसे संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजने का निर्णय हुआ था। यह एक सुविदित तथ्य है। जब किसी विषय पर सरकार निर्णय नहीं करना चाहती और बगैर दोष लिये उसे विलम्बित करना चाहती है, तो ऐसे प्रस्ताव संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिये जाते हैं। यही घटना मनरेगा के प्रस्ताव पर हुयी थी कि संसद में मनरेगा के कानून पेश होने के बाद कोइ निर्णय नहीं हो सका और उसे संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया। जिस समिति को भेजा गया था उसके अध्यक्ष स्व. कल्याण सिंह,पूर्व मुख्यमंत्री उ. प्र. थे और ऐसा प्रतीत होता है कि वे और जो कु छ भी हो पर भगवान राम के नाम के प्रति समर्पित थे। उन्होंने तो अयोध्या में जाने के लिये अपनी सरकार को भी दांव पर लगा दिया था और राम मंदिर निर्माण की भूमिका रखी थी। जब उन्हें समिति के किसी सदस्य ने राम भरत संदेश का प्रसंग सुनाकर प्रस्ताव का समर्थन करने के लिये कहा तब उन्होंने तत्काल साहस के साथ समर्थन किया। यद्यपि उनकी पार्टी की भी आम राय इसके पक्ष में नहीं थी। बहुत सम्भव है इसका कारण यह रहा हो कि उनकी पार्टी भाजपा को यह लगता था की मनरेगा कानून बनने के बाद गाँव में मजदूरों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलेगा, और यह कानून कांग्रेस की सरकार में वापसी के लिये लाभदायक होगा, क्योंकि इस कानून के अनुसार मजदूरों को उनके ग्राम या समीपी क्षेत्र में ही रोजगार देने की अनिवार्यता थी। इसके बावजूद स्व. कल्याण सिंह ने संयुक्त संसदीय समिति में मनरेगा का न केवल समर्थन किया, बल्कि उसे मजबूती के साथ पास कराया और जब विपक्ष की अध्यक्षता वाली समिति ने ही प्रस्ताव का समर्थन कर दिया तो प्रधानमंत्री के पास इसे पारित करने और लागू कराने के अलावा बचने का कोई रास्ता नहीं था। मनरेगा लागू होने के बाद बड़े पैमाने पर करोड़ों ग्रामीण मजदूरों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिले और पहले जो गाँव में भूख से मरने के समाचार अक्सर छपते थे, वह काफ ी हद तक बंद या कम हो गये। मनरेगा जब विमर्श के राष्ट्रीय फ लक पर प्रमुख है तब यह भी सुखद संयोग है कि इसी समय डॉ. अशोक पंकज जी की पुस्तक ‘इन क्लूजिव डेवलपमेंट थ्रू गारंटीड एम्पालायेमेंटÓ प्रकाशित हुयी है। जिसे स्प्रिंगर ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में डॉ. पंकज ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र को उद्धत करते हुये लिखा है कि ‘चाणक्य ने राजा को सलाह दी थी कि प्रजा की खुशी में राजा की खुशी रहती है। प्रजा के कल्याण में राजा का कल्याण निहित रहता है, इसीलिये दुर्गो (किलो) का निर्माण करो, सिंचाई के लिये नहरें आदि बनाओ ताकि प्रजा को काम मिल सके और वह सुखी रह सके। शायद चाणक्य के निर्देश में यह संदेश भी निहित रहा होगा कि प्रजा अगर काम में मशगूल रहेगी और भूखमरी नहीं होगी तो राजा के खिलाफ विरोध या बगावत नहीं होगी। डॉ. अशोक पंकज ने कई राज्यों के मनरेगा के कार्यक्रमों का अध्ययन कर कु छ ठोस निष्कर्ष निकाले हैं। मनरेगा के बारे में एक आरोप आम तौर पर यह लगता है कि इसमें भ्रष्टाचार होता है। इस आरोप को नकारा नहीं जा सकता परन्तु यह भी उल्लेखनीय है कि भ्रष्टाचार नीति या योजना का नहीं है, बल्कि क्रियान्वयन करने वाली संस्थाओं या एंजेंसियों का है, और जिसे प्रशासनिक कसावट से काफ ी हद तक दूर किया जा सकता है। दूसरा आक्षेप यह लगता है कि मनरेगा के काम जिन्हें कानून के अनुसार श्रमिक के हाथों से होना चाहिये उन्हें मशीनों द्वारा कराया जाता है। क्योंकि श्रमिक नहीं मिलते।मैं मानता हूं कि दो कारण से विशेषत: ग्रामीण क्षेत्र में श्रमिकों की संख्या पर प्रभाव पड़ा है। एक तो इसलिये की अबपुरानी सामाजिक संरचनायें टूट रही है और गाँव का मजदूर जो बाहर जाकर तो मजदूरी व कठोर से कठोर श्रम करने को तैयार रहता है, परन्तु अपने गाँव में वह कुछ सामाजिक कारण से उसे असम्मान जनक महसूस करता है। दूसरा इससे भी बड़ा कारण है कि जब गाँव का मजदूर काम के लिये बाहर जाता है तो उसे मजदूरी में ज्यादा पैसा मिलता है। दिल्ली में ग्रामीण मजदूर को 400-500 सौ रूपये रोज मिल जाता है। अभी कुछ दिन पूर्व तमिलनाडु में बिहार के मजदूरों के साथ मारपीट और हमले की जो बर्बर घटना मीडिया में आयी है अगर वह सही है । नि:संदेह वह प्रशासनिक मशीनरी की खासकर कानून व्यवस्था लागू करने वाली पुलिस की असफ लता है। यद्यपि मजदूरों को पीटते हुये जो वीडियो वायरल हुये है, उनका तमिलनाडु के डी.जी. पुलिस ने यह कहकर खण्डन किया है कि यह गलत वीडिया डाले गये हैं, जो पुराने छात्रों के आपसी झगड़े के हैं। हालांकि बिहार के कु छ मजदूरों के परिजनों ने तो अपने परिजन श्रमिकों से बात कर बताया है कि उनके परिजनों के साथ हिंसात्मक घटनाएं घटी है, और हो रही है। नि:संदेह यह एक गंभीर मामला है, जिसकी उच्च स्तरीय जांच सी.बी.आई. या न्यायिक संस्था द्वारा होनी चाहिये ताकि सच्चाई सामने आ सके, परन्तु इस हिंसा का जो कारण बताया गया है, अगर वह सच है तो वह महत्वपूर्ण है। बिहार के मजदूरों का कहना है कि ‘स्थानीय मजदूर उन्हें इसलिये भगाना चाहते हैं क्योंकि वे वही काम सात सौ से आठ सौ रूपये रोज में कर रहे हैं जिसके लिये तमिल श्रमिक 1200 रूपया रोज लेते थे। अब चूंकि मालिकों के लिये बिहार का श्रमिक सस्ता है, चार पांच सौ रूपया कम पर उपलब्ध है, वे तमिल श्रमिकों के बजाय बिहार के श्रमिकों को प्राथमिकता देते है, जो कि स्वाभाविक भी है। चूंकि मनरेगा की मजदूरी लगभग ढाई सौ रूपया रोज है, अत: बिहार का व्यक्ति तमिलनाडु पंजाब या दिल्ली आदि शहरों में जाकर काम करना पसंद करता है। क्योंकि उसे वहां तीन से चार गुना मजदूरी मिल रही है। मनरेगा में श्रमिकों की कमी की बड़ी वजह कम मजदूरी भी है और जब श्रमिक नहीं मिलते है तो अपने निर्धारित ग्रामीण और स्थानीय कार्यों को पूरा कराने के लिये अधिकारी लाचार होकर मशीनों का प्रयोग कराते हैं ताकि वह अनुशासनात्मक कार्यवाही से बच सकें। अगर भारत सरकार समूचे देश के श्रमिकों के लिये चाहे वह शासकीय हो या अशासकीय हो एक समान मजदूर की दर तय करे तो स्थानीय श्रमिकों के अभाव की समस्या का काफी हद तक हल निकल जायेगा।एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि ग्रामीण अंचल में नि: शुल्क राशन पांच किलो प्रति व्यक्ति की दर से वितरण शुरू हुआ है। नि:संदेह इससे गरीबों को भूख से बचने की गारंटी मिली है और सरकार को भी चुनाव जीतने की गारंटी। परन्तु अनुभव यह भी आ रहा है कि देश में बगैर परिश्रम के खाने वालों की एक बड़ी फौज तैयार हो रही है जो धीरे-धीरे अकर्मण्य बनती जा रही है। और जब मुफ्त राशन से ही जीवन चल जाये तो व्यक्ति को श्रम करने की क्या आवश्यकता है यह सोच मजदूरों का बन रहा है। हमारे बुंदेलखण्ड में एक पुरानी कहावत चलती है कि ‘जब बैठ के मिले खाने, तो कौन जाय कमाने। मनरेगा इस अर्थ में मुफ्त राशन वितरण से बेहतर योजना है। जिसमें श्रम के बदले रोजगार है और स्थानीय स्तर पर घर के नजदीक रोजगार की गारंटी है। अगर नीचे लिखित संशोधन कानून में कर दिये जाये तो दोनों प्रकार की समस्या का बेहतर निराकरण हो सकता है।
1.देश में समान मजदूरी दर

2. नि: शुल्क या मुफ्त राशन बीमारों वृद्धों विकलांगों व केवल उनके लिये जिन्हें सरकार कोई काम नहीं दे पाती ही दिया जाये।

नि:शुल्क राशन वितरण की वजह से जो आर्थिक बोझ सरकार पर आ रहा है। शायद उससे मुक्ति पाने के लिये सरकार ने मनरेगा का बजट कम करना शुरू कर दिया है। वर्ष 2022-23 के बजट में मनरेगा को 89 हज़ार करोड़ राशि रखी थी। जिसे 2023-24 में घटाकर 60 हज़ार करोड़ कर दिया गया। याने लगभग 30 हजार करोड़ की बजट राशि कम कर दी गयी। वर्ष 2022-23 के 12 हजार करोड़ की मजदूरी की बकाया देनदारी और 6 हजार एक सौ करोड़ की सामग्री की देनदारी भी बकाया है जिसे नये बजट में चुकाना होगा। यानि की 18 हजार करोड़ की पिछली देनदारी इस नये सत्र के बजट से होगी। इसका अर्थ हुआ कि इस वर्ष वास्तविक वार्षिक बजट लगभग 42 हजार करोड़ रूपया ही होगा जो पिछले बजट की तुलना में लगभग आधे से भी कम होगा। देश के प्रबुद्ध तबके में यह संदेह है कि भारत सरकार इस प्रकार क्रमश: मनरेगा के बजट को कम कर मनरेगा की योजना को समाप्त करना चाहती है। कुछ लोगों का यह भी आक्षेप है कि सरकार मनरेगा को कांग्रेस सरकार की योजना मानती है और इसलिये इसे समाप्त करना चाहती है। जबकि मनरेगा को तो भगवान राम का संदेश मानकर स्वर्गीय कल्याण सिंह ने पारित कराया था अन्यथा यह पारित नहीं हो सकता था। मनरेगा में स्थायी कार्यों का हिस्सा बढ़ाने के लिये इसे रेल लाईनों के विस्तार और नदी जोड़ो योजना के साथ भी जोड़ा जा सकता है। यह और भी उपयोगी होगा। जिसमें, भ्रष्टाचार भी कम होगा तथा व्यय का परिणाम स्थायी विकास और रोजगार के रूप में मिलेगा।मनरेगा की राशि को फिजूल खर्ची से बचाया जाना चाहिए। आजकल नया चलन शुरू हुआ है कि मनरेगा की राशि से सरकारे बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करती है जबकि मनरेगा प्रचार नहीं विचार की योजना है। मनरेगा विज्ञापन की नहीं हर श्रमिक को स्थानीय तौर पर रेाजगार संरक्षण की योजना है। यह आश्चर्यजनक है कि मंदिरों में पाषाण प्रतिमाओं की स्थापना में हजारों करोड़ रूपया सरकारी खर्च हो रहा है जबकि ईश्वर की सबसे सुन्दर कृति मनुष्य के लिये बजट कम हो रहा है। मैं भारत सरकार और राज्य सरकारों से उम्मीद करूॅगा की वह उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में अपनी नीति को पुन: संशोधित करें। डॉ. अशोक पंकज की पुस्तक जो मनरेगा कानून उसके क्रियान्वयन उसके वर्तमान और भविष्य का निष्पक्ष और बेबाक चिन्तन करती है, इस उद्देश्य के लिये बहुत ही उपयोगी है।

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