रघु ठाकुर
नई दिल्ली। हमारे देश में दुर्घटनायें होती हैं परंतु शायद ही कभी किसी की कोई जवाबदारी तय होती हो। यह चलन केवल आज से नहीं है बल्कि आजादी के बाद से ही लगभग चला आ रहा है। कभी-कभी कुछ राजनैतिक, नैतिकता के आधार पर कदम उठाये जाते हैं। ऐसे कदम वैयक्तिक नैतिकता के नाते मानदंड बनते हैं, परंतु व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं लाते। कुंभ मेले में एक बड़ी दुर्घटना इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर भगदड़ में हुई थी, उस समय प्रधानमंत्री स्व: जवाहर लाल नेहरू थे और वह इलाहाबाद के फू लपुर से सांसद थे। इसमें कई सौ लोग भगदड़ में मर गये थे। कुछ दिन मीडिया पर्व चला, कमेटी बनी, कुछ सुझाव आये और मामला समाप्त हो गया। एक रेल दुर्घटना को लेकर तत्कालीन, रेलमंत्री स्व: लाल बहादुर शास्त्री ने नैतिक आधार पर इस्तीफ़ा दिया था। उससे उनकी निजी छवि व ऊंचाई बढ़ी परंतु व्यवस्था जहां की तहां रही। स्व: विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उनके भाई जो जज थे, कि हत्या डाकूओं ने की थी, उन्होंने भी नैतिक आधार पर अपनी असफलता मानकर इस्तीफ़ा दिया था और देश ने जैसे उनके गुरु स्व: लाल बहादुर शास्त्री को नैतिकता का पर्याय बताया था उसी प्रकार उन्हें भी सम्मानित किया। इस्तीफे के बाद स्व: वी. पी. सिंह भी प्रधानमंत्री बने। हालांकि दस्यु समस्या यथावत रही।
वैसे तो सबसे बेहतर यह होता कि ये इस्तीफ़ा देने की जगह व्यवस्था को सुधारते, गड़बडिय़ां करने वालों को दंडित करते परंतु किसी ने भी वह नहीं किया। अगर इस्तीफ़ा, देने के बाद इन्होंने उस व्यवस्था को सुधारने के लिये चाहे वह रेल की हो या कानून व्यवस्था की, कुछ संषर्ष भी किया होता तब भी कुछ हलचल होती परंतु कालान्तर में उसी व्यवस्था के बड़े हिस्सेदार बने रहे। अब तो प्रति वर्ष न मालूम कितने हादसे होते हैं। दो-चार दिन अखबार में छप जाते हैं परंतु दंडित कोई नहीं होता। यूनियन कार्बाइड में, मिक गैस के रिसन के लिये कौन जवाबदार था, कौन गुनाहगार है इस पर आज तक कोई निर्णय नहीं हुआ। और पीडि़त पक्ष भी केवल पैसा व रियायतें लेकर अपने मृतक पुरखों की मौत को बेच देता है। म.प्र. में धार में बिस्फोट की घटना हुई, फिर हरदा में हुई और ऐसी अनेकों घटनायें उद्वित की जा सकती हैं परंतु सभी गुनाहगार सलाखों के बाहर हैं। पिछले कुछ वर्षों में जो धार्मिक जुनून पैदा हुआ है, उसके कारण भी कई भगदड़ें हुई हैं। ग्वालियर जिले के रतनगढ़ की माता के मंदिर में अचानक पानी छोड़ देने से कृत्रिम बाढ़ आई जिससे बड़ी संख्या में लोग मरे और देवी कृपा से सब शांत हो गया। गुना जिले में भी एक मंदिर में वार्षिक मेले में भारी भीड़ हुई, दुर्घटना में काफी लोग मरे, सरकारों ने मुआवजा दिया और मामला शांत हो गया।
ऐसी कितनी ही घटनायें धार्मिक स्थलों पर लगातार होती रही हैं। हालांकि हमारे देश के मीडियाके एक हिस्से का नजरिया धार्मिक मामलों में नितांत अंधविश्वासी जैसा है। एक बार जब बद्रीनाथ, केदारनाथ में अचानक बर्फ पिघलने से बाढ़ आई, भारी तबाही हुई तो पर्यावरणविदों ने इस घटना को वनों के कटाई वालों के खाते में डाल दिया और मीडिया के एक हिस्से ने छापा कि बस केवल मठ बचा रह गया। याने भगवान केवल खुद को ही बचा पाये। अभी धराली उत्तराखंड में जो घटना हुई और बाढ़ आई उसके बारे में मीडिया ने छापा केवल गीता बच गई। यानि छपी हुई गीता की किताब बड़ी संख्या में इंसानों की मौत से अधिक महत्वपूर्ण है। यदि गीता बह भी जाती तो गीता प्रेस से दूसरी प्रति मिल जाती। परंतु जिन इंसानों की जान चली गई क्या उन्हें वापिस लाया जा सकता है ?
अभी कुछ दिनों पूर्व देश में तीन और घटनायें घटी
1. बंगलोर में क्रिकेट के मैच के बाद जश्न मनाने को जो लोग लाखों की संख्या में जमा हुये, वहां भगदड़ मची तथा कई लोग मारे गये। क्रिकेट बोर्ड के लोगों ने पहले से जीत के बाद जश्न मनाने को जो तैयारियां व व्यापक प्रचार किया था उसके मानसिक प्रभाव में लाख से अधिक लोग मैदान में पहुंच गये। इसकी सूचना अधिकृत रूप से पुलिस को थी, न प्रशासन को थी। दो चार दिन अखबार में परस्पर दोषारोपण हुआ, क्रिकेट खिलाड़ी विराट कोहली ने खेद व्यक्त किया और मामला शांत हो गया।
2. तेलंगाना में एक फिल्म के शो के प्रीमियर पर दक्षिण के एक लोकप्रिय अभिनेता को टॉकीज के पास बुलाया गया और उन्हें देखने के लिये जो भगदड़ गची उसमें कई लोग मारे गये। चूंकि उक्त अभिनेता वहाँ की सरकार के खिलाफ वाले हैं अत: यह शायद देश की पहली घटना होगी जहां की अभिनेता पर इस आधार पर आपराधिक प्रकरण दर्ज किया गया कि वह बगैर पुलिस सूचना के ऐसे कार्यक्रम में न पहुंचे जिसके कारण भगदड़ गची और मौतें हुई। परंतु इस प्रकार की कार्यवाही कर्नाटक में नहीं हुई।
3. अभी कुछ दिनों पहले म.प्र. के सीहोर के एक कथावाचक प्रदीप मिश्रा के आयोजन में शामिल होने के लिये देशभर से हजारों या लाख के आसपास लोग पहुंच गये, वहाँ भगदड़ मची और उस भगदड़ में कई श्रद्धालु मर गये। ऐसा बताया जाता है कि प्रदीप मिश्रा रूद्राक्ष बांटते हैं और देश के आम लोगों में यह प्रचारित है कि इस रूद्राक्ष से मोक्ष मिल जायेगा। यह भी बताया जाता है कि प्रदीप मिश्रा कोई पर्ची निकालते हैं, इस पर्ची में क्या होता है इसकी कोई निजी जानकारी मुझको नहीं है परंतु कुछ लोग कहते हैं कि समस्याओं का हल निकलता है। इतनी गंभीर घटना के बाद भी प्रदीप मिश्रा ने न तो कोई जवाबदारी ली और न प्रशासन ने कोई कार्यवाही की।
कई बार तो ऐसा लगता है कि देश में दो प्रकार के कानून चल रहे हैं, हम जो राजनैतिक पार्टी के लोग हैं, जो समाज परिवर्तन के लिये काम करते हैं, लोगों को सविनय अवज्ञा सिखाने का प्रयास करते हैं, उनके लिये सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकारों तक सबसे बड़े कठोर नियम हैं। एक राजनैतिक दल को यदि धरना देना हो तो कलेक्टर के यहां आवेदन करना होता है, वह आवेदन पुलिस को भेजा जाता है और पुलिस की सहमति के बाद अनुमति दी जाती है। कितना विचित्र है कि एक सविनय अवज्ञा वाले को पुलिस से अनुमति लेनी होती है व दफ्तार के चक्कर काटना पड़ते हैं, इतना ही नहीं 20-30 कालम का एक प्रारूप है जो दिल्ली के संसद मार्ग थाने में भरना होता है, इसे सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनाया गया। परंतु यह व्यवस्था व नियम प्रदीप मिश्रा, बाबाओं, क्रिकेट खिलाडिय़ों आदि को नहीं है। वे जब चाहे बगैर किसी व्यवस्था के लाख लोग जमा करें, परंतु वे कानून से परे हैं। घटना के पहले या बाद में पुलिस प्रशासन इनकी सेवा में तल्लीन रहता है, ये बाबा लोग कह सकते हैं कि हमने नहीं बुलाया, परंतु यह सत्य नहीं है, सूचना देने के या पहुँचने के कई तरीके होते हैं और जब एक बार बड़ी संख्या में लोग जुड़ जाते हैं तो वह भी स्वतरू विचार करते हैं।
सोशल मीडिया भी एक बड़ा माध्यम है। हाल के कुंभ में बकायदा उ.प्र. सरकार के मंत्रियों ने राज्यों में जा जाकर निमंत्रण दिया था इसके बावजूद भी शासन और प्रशासन कोई जवाबदारी लेने को तैयार नहीं। दुर्घटना होने के बाद राज्य सरकारें या केंद्र सरकार, सरकारी कोष से आर्थिक मदद मृतक के परिवार को देती है यानि जनता ही जाये, जनता ही मरे और जनता के पैसे से ही मरने वालों के परिवारों को मदद दी जाये। होना तो यह चाहिये कि इन बाबआों या कथावाचकों के पास जो धन जमा है उससे मृतकों को हर्जाना देना चाहिये और जिस प्रकार एक आदमी के विरुद्ध बगैर अनुमति के आयोजन करने के लिये आपराधिक मुकदमा चलाया जाता है, उसी प्रकार इन बाबाओं के विरुद्ध मुकदमा चलाया जाना चाहिये। प्रदेश और देश में कानून का राज नहीं है। कानून के राज का मतलब होता है सबके लिये समान कानून व्यवस्था। परंतु हमारे देश में राजनैतिक सत्ताधीशों, धार्मिक सत्ताधीशों और पूँजी के सत्ताधीशों के लिये कोई कानून नहीं है, ये कानून से परे हैं। जनता को भी अंध विश्वासों से मुक्ति पानी चाहिये और भाग्य व पर्ची के बजाये कर्म और पुरुषार्थ पर भरोसा करना चाहिए।