
समीक्षा : शाश्वत तिवारी
Dhurander news :‘धुरंधर’ हर किसी के लिए बनी फिल्म नहीं है। यह उन दर्शकों के लिए है जो सिनेमा को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि संवाद मानते हैं। यह फिल्म असहज करती है, परेशान करती है, और शायद इसी कारण जरूरी भी है।निर्देशन, संगीत, लोकेशन और अभिनय, हर स्तर पर ‘धुरंधर’ एक परिपक्व और साहसी प्रयास है। यह फिल्म हमें आईना दिखाती है, और आईने में दिखता चेहरा हमेशा सुंदर हो, यह जरूरी नहीं। अंततः ‘धुरंधर’ एक ऐसी फिल्म है जो खत्म होने के बाद भी खत्म नहीं होती। वह दर्शक के भीतर चलती रहती है। एक सवाल की तरह, एक बेचैनी की तरह, और शायद एक चेतावनी की तरह भी।

हिंदी सिनेमा के मौजूदा दौर में, जब अधिकांश फिल्में या तो त्वरित मनोरंजन की खपत बनकर रह जाती हैं या फिर बड़े बजट के शोर में अपनी आत्मा खो देती हैं, ‘धुरंधर’ एक ऐसी फिल्म के रूप में सामने आती है जो दर्शक से सिर्फ तालियाँ नहीं, बल्कि सोच, असहजता और आत्ममंथन भी मांगती है। यह फिल्म अपने नाम की तरह ही धूर्त, चतुर और रणनीतिक है। कहानी के स्तर पर भी और प्रस्तुति के स्तर पर भी।
‘धुरंधर’ केवल एक कथा नहीं, बल्कि एक राजनीतिक‑सामाजिक टिप्पणी है, जो सत्ता, नैतिकता, अवसरवाद और मानवीय कमजोरियों को सिनेमा की भाषा में अनावृत्त करती है। यह समीक्षा फिल्म के संगीत, निर्देशन, लोकेशन, सिनेमैटोग्राफी और किरदारों के बहाने उस समूचे वैचारिक ढांचे की पड़ताल करती है, जिसे ‘धुरंधर’ बड़ी निर्भीकता से हमारे सामने रखती है। ‘धुरंधर’ की कहानी पहली नज़र में जितनी सीधी दिखाई देती है, असल में उतनी ही परतदार है। फिल्म की सबसे बड़ी ताकत यही है कि यह दर्शक को तुरंत अपने पत्ते नहीं खोलती। कथा धीरे‑धीरे आगे बढ़ती है, किरदारों के साथ‑साथ दर्शक की समझ भी विकसित होती है।
यह कहानी व्यक्ति बनाम व्यवस्था की नहीं, बल्कि व्यक्ति के भीतर पल रही व्यवस्था की कहानी है। हर पात्र किसी न किसी स्तर पर धुरंधर है। कोई सत्ता के खेल में, कोई भावनाओं के, कोई रिश्तों के और कोई नैतिकता के साथ। फिल्म यह सवाल उठाती है कि क्या धुरंधर होना एक मजबूरी है, या यह हमारे समय की सबसे बड़ी बीमारी बन चुका है?
कथानक में कहीं भी अनावश्यक मेलोड्रामा नहीं है। संवाद कम हैं, लेकिन अर्थपूर्ण हैं, कई बार खामोशी संवादों पर भारी पड़ती है। और यही ‘धुरंधर’ की सबसे सशक्त सिनेमाई उपलब्धि है।
फिल्म निर्देशक, आदित्य धर ने ही इसफिल्म की कहानी और पटकथा लिखी है। अतिरिक्त पटकथा लेखन में ओजस गौतम और शिवकुमार वी० पणिक्कर भी शामिल हैं। आदित्य धर ने ‘धुरंधर’ को महज़ कहानी कहने की कवायद नहीं बनने दिया। निर्देशन में स्पष्ट वैचारिक हस्तक्षेप दिखाई देता है। हर फ्रेम, हर मूवमेंट और हर कट एक उद्देश्य के साथ रखा गया है। लेखन और निर्देशन का यह संयोजन फिल्म को एक सुसंगत दृष्टि देता है। पटकथा में अनावश्यक व्याख्या से बचते हुए निर्देशक ने दृश्यात्मक भाषा पर भरोसा किया है। यही कारण है कि कई अहम मोड़ संवादों से नहीं, बल्कि दृश्य-संरचना से पैदा होते हैं। विशेष रूप से उल्लेखनीय है निर्देशक का यह साहस कि उन्होंने फिल्म को ग्रे शेड्स में जीने दिया। यहां कोई पूर्ण नायक नहीं, कोई संपूर्ण खलनायक नहीं। हर किरदार अपने तर्क के साथ खड़ा है, और यही बात फिल्म को यथार्थ के सबसे करीब ले जाती है।
निर्देशन की एक और बड़ी उपलब्धि है फिल्म की रिदम। साढ़े तीन घंटे की फिल्म कहीं भी बोझिल नहीं लगती। कथा की गति दर्शक की सांसों के साथ चलती है, कहीं तेज, कहीं ठहरी हुई। निर्देशक ने ‘धुरंधर’ को महज़ कहानी कहने की कवायद नहीं बनने दिया। निर्देशन में स्पष्ट वैचारिक हस्तक्षेप दिखाई देता है। हर फ्रेम, हर मूवमेंट और हर कट, एक उद्देश्य के साथ रखा गया है। फिल्म का निर्देशन, दर्शक को निर्देशित नहीं करता, बल्कि उसे साक्षी बनाता है। निर्देशक ने कहीं भी उपदेश देने की जल्दबाज़ी नहीं दिखाई। पात्रों के निर्णय, उनकी गलतियां और उनके अंत, सब कुछ दर्शक के विवेक पर छोड़ दिया गया है।











