शाश्वत तिवारी
लखनऊ। आज़म खान की सियासत को न तो मुकदमों ने खत्म किया है और न ही जेल की दीवारों ने…। यही वजह है कि उनकी मौजूदगी से प्रदेश की राजनीति का समीकरण फि र उलझने लगा है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या आज़म खान फि र सीधे चुनावी मैदान में उतरेंगे या परदे के पीछे से ‘किंग मेकर’ की भूमिका निभायेंगे। इतना तो तय है कि उनकी वापसी से यूपी की सियासत में नये समीकरण बनेंगे और पुराने हिसाब- किताब बिगड़ेंगे…। जेल से बाहर आने के बाद आज़म खान की राजनीति एक बार फिर सुर्खिय़ों में है। रामपुर की ज़मीन से उठे इस कद्दावर नेता का असर सिर्फ़ एक सीट या जि़ले तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वे मुस्लिम राजनीति के बड़े चेहरे के रूप में देखे जाते रहे हैं। यूपी में मुस्लिम वोट बैंक लंबे समय से सपा का सहारा रहा है। आज़म खान की मौजूदगी, इस वोट बैंक को मजबूत कर सकती है, लेकिन एआईएमआईएम जैसे दल और भाजपा की ‘मुस्लिम आउटरीच’ कोशिशें इस समीकरण को चुनौती दे सकती हैं।
आज़म खान और अखिलेश यादव के रिश्ते काफी उतार- चढ़ाव भरे रहे हैं। रिहाई के बाद आज़म की सियासत इस पर भी निर्भर करेगी कि सपा उन्हें कितना स्पेस देती है। वे पार्टी के भीतर असंतोष की आवाज़ बन सकते हैं या अखिलेश के साथ खड़े होकर मुसलमानों को एकजुट करने वाले नेता साबित हो सकते हैं। भाजपा के लिये आज़म खान हमेशा आसान टारगेट रहे हैं। उन पर लगे मुक़दमे और उनकी विवादित छवि को भाजपा राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती रही है। रिहाई के बाद भाजपा का फ़ोकस होगा कि उन्हें ‘अकेला’ और ‘कमजोर’ दिखाया जाये ताकि उनकी वापसी सियासी ताक़त में तब्दील न हो पाये। आज़म खान का गढ़ रामपुर है] लेकिन क्या वे अब फि र से प्रदेश स्तरीय राजनीति में क़दम बढ़ा पायेंगे? सबसे बड़ा सवाल यही है…। अगर वे सिर्फ़ रामपुर तक सिमटे रहते हैं तो उनका असर सीमित रहेगा, लेकिन अगर वे प्रदेश स्तर पर विपक्षी एकता का हिस्सा बनते हैं तो सियासी बिसात बदल सकती है।
आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में आज़म खान प्रत्यक्ष उम्मीदवार बनें या न बनें, लेकिन मुस्लिम मतदाताओं की दिशा तय करने में वे अहम् भूमिका निभा सकते हैं। यही उन्हें ‘किंग मेकर’ की स्थिति में ला खड़ा करता है। जेल से निकलने के बाद उनके स्वागत में जुटी भीड़ ने साफ़ कर दिया कि उनकी पकड़ अभी भी बरकरार है। विरोधियों ने समझ लिया था कि उनकी राजनीति खत्म हो चुकी है,लेकिन पुराना खिलाड़ी एक बार फि र मैदान में लौट आया है। आज़म खान की सबसे बड़ी ताक़त उनकी ‘जुबान’ की धार और जनता से ‘सीधा रिश्ता’ है। यही वजह है कि उनकी मौजूदगी मुस्लिम राजनीति के केंद्र में नई हलचल पैदा कर सकती है। लेकिन आज़म खान और अखिलेश यादव के रिश्ते हमेशा सहज नहीं रहे। अगर अखिलेश उन्हें फि र से पार्टी का केंद्रीय चेहरा बनाने की कोशिश करते हैं, तो यह मुस्लिम वोट बैंक को मजबूती देगा। लेकिन अगर उन्हें दरकिनार किया गया तो आज़म पार्टी के भीतर असंतोष की आवाज़ भी बन सकते हैं।
अगर आज़म खान सीधे चुनाव न भी लड़ें, तो भी वे मुस्लिम मतदाताओं की दिशा तय करने वाले अहम् खिलाड़ी रहेंगे। वे न सिर्फ़ सपा के लिये, बल्कि पूरे विपक्षी गठजोड़ में ‘किंग मेकर’ की भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे में उनकी रिहाई विपक्षी राजनीति को नया उभार दे सकती है। आज़म खान अब चाहे› खुद चुनावी मैदान में उतरे या परदे के पीछे से राजनीति की डोर थामें, इतना तय है कि उनकी मौजूदगी यूपी की सियासत को और दिलचस्प बना देगी। उनकी वापसी पुराने समीकरणों को तोड़ेगी और नये गठबंधनों की बुनियाद रख सकती है।