
रघु ठाकुर
नई दिल्ली। सभी धर्मों के शास्त्र यह कहते हैं कि दुनिया को ईश्वर ने बनाया है। धर्म शास्त्रों के स्त्रोत अलग-अलग प्रकार के हो सकते हैं, उनके कहने के तरीके भिन्न हो सकते हैं परंतु सामान्यत सभी का निष्कर्ष एक ही रहता है। हिंदू धर्म की मूल कल्पना भी यही है कि ईश्वर या भगवान है जिसने दुनिया को बनाया है, सृष्टि को रचा है। इस्लाम भी अल्लाह को सभी का नियंत्रक मानता है और हजरत मोहम्मद साहब को, अल्लाह के उपदेशों को, निर्देशों को जमीन पर उतारे जाने का वर्णन करता है। यह सही है या गलत इस पर बहस निरर्थक है क्योंकि इस्लाम के करोड़ों अनुयायी इसे ही मानते हैं और इन निर्देशों को अपरिवर्तनीय मानते हैं।

ईसाई भाई भी ईसा को ईश्वर का रूप मानते हैं और उनके उन निर्देशों का पालन करते हैं। यहूदी भी अल्लाह को ही मानते हैं हालांकि उनकी कहानी में या किताब में और इस्लाम की मानने वाली किताब में, निर्देशों को मानने का फर्क है और यहां तक भी स्थिति है कि मुसलमान और यहूदी दोनों के ईश्वर के दूतों का स्थान एक ही है, यानि जहां से उनके शास्त्रों के मुताबिक वे अल्लाह के निर्देशों को बताकर वापिस चले गये। बुद्ध धर्म भी धर्म को मानता है हालांकि बौद्ध एक तार्किक धर्म है, जो कहता है कि किसी भी बात को तब तक मत मानो जब तक उसे देख न लो। और यह भी कि अपना रास्ता खुद चुनो (आप्प दीपो भव) अपने दीपक खुद बनो। सिख धर्म भी एक ईश्वर को मानता है और उनकी सीखों को देने के रूप में गुरुनानक को अपना गुरु मानता है। कुल मिलाकर दुनिया की बड़ी आबादी यही मानती है कि कोई ऐसी दैवीय शक्ति जिसे अल्लाह कहें, ईश्वर कहें या गॉड कहो जिसने इस दुनिया को बनाया है। लगभग अधिकांश धर्म विशेषत हिन्दू, ईसाई और इस्लाम तो यह मानते हैं कि आदमी के अच्छे बुरे कामों का फैसला ईश्वर या अल्लाह करता है। अच्छे काम वालों को स्वर्ग में और बुरे काम वालों को नरक में। इस्लाम के मुताबिक जन्नत और जहन्नूम में भेजा जाता है। बहरहाल कुछ प्रकृति के रहस्य ऐसे हैं जिन्हें व्यक्ति आज तक तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर नहीं जान पाया है इसलिए वह यह मानता है कि इस सृष्टि की रचना किसी अनजान, अनदेखी शक्ति ने की है। दूसरी तरफ हमारे गाँव का किसान और बगीचे का माली होता है जो बीज डालता है, पौधे तैयार करता है। किसान फसल और माली फूल तैयार करता है यानि वह भी सीमित अर्थों में सृजन का काम करता है, परंतु उसके पीछे उसका अपना स्वार्थ भी होता है तथा वह अपने जीवन यापन के लिए जिस फसल को तैयार करता है उसी को काटता है। माली जिस फूल को तैयार करता है उसे ही तोड़ता है। इस्लाम के मानने वाले अल्लाह के हुकुम पर अपनी सबसे प्रिय चीज को कुर्बान करते हैं और बकरीद के पहले महीनों बकरों को खिलाते, पिलाते और घुमाते हैं और बकरीद के दिन उन्हें कुर्बान कर देते हैं। हालांकि इस पर प्रश्न उठता है कि व्यक्ति को बकरा प्यारा है या अपनी संतान और आम आदमी को संतान प्यारी है तो बकरे की कुर्बानी क्यों? इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि इस्लामी दर्शन के उदघोषकों ने मानवीय कमजोरी को समझा था कि अगर वे अपनी संतान की कुर्बानी का कहेंगे तो इसे कोई स्वीकार नहीं करेगा। दूसरा यह भी है कि उन्होंने इंसान और जानवर के बीच यह फर्क माना है कि अपने लिए इस्तेमाल करना हो तो इसान को मत मारो, पशु वध करो। इस अर्थ में इस्लाम इतना तो अहिंसक है कि वह मानव वध का निर्देश नहीं देता। इसका तीसरा पहलू यह भी है कि अगर अपने पेट और जीभ लिप्सा के लिए पशुवध करना है तो वह साथ में एक ही बार बकरीद को करो बकाया दिन नहीं। यानि मांसाहारी खाना भी साल में एक ही दिन खाना चाहिए। बहुत संभव है कि यह भी निर्देश इसलिए दिया गया हो कि रमजान के माह में एक माह इंसान के खाने के अंतराल में जो लंबी अवधि होती है इससे उसके शरीर में प्रोटीन आदि की कोई कमी आयी हो तो उसे पूरा किया जा सके। परंतु मेरी समझ में मांसाहार की अवधि भी एक निर्धारित अवधि ही है। हालांकि इस तर्क को मुस्लिम भाई शायद ही स्वीकार करें। तीर्थ सभ्यता और हिंदू धर्म की परंपराओं में भी आरंभिक काल में यज्ञों में पशु बलि दी जाती थी। कितने ही ऐसे मंदिर हैं जिनमें पशु बलि की परंपरा मान्य थी। यहां तक कि कामाख्या देवी के मंदिर मे भी पशु बलि दी जाती थी परंतु कालांतर में कुछ जनमत के दबाव में कुछ परिवर्तन हुआ है और अब पशु बलि को बंद कर दिया गया है। अब आटे आदि के बनाये हुये पशु की पशुबलि दी जाती है। जैसे भी हो यह कुछ तो सुधार है कि किसी प्रकार पशु बलि या नर बलि रोक दी गई। मैं मानता हूं कि, एक जमाने में रेगिस्तान के इलाकों में चूंकि अनाजों की पैदावार कम थी अतरू वहां मांसाहार जरूरी रहा होगा। ठंडे मुल्कों में भी शायद उनकी शारीरिक जरूरतों के लिए मांसाहार जरूरी होगा। राहुल साकृत्यान ने तो अपने अनुभवों में भी लिखा ही है कि बद्रीनाथ, केदारनाथ के मठों में भी बर्फ गिरने के बाद सूखा मांस ही रखा जाता था और उसका प्रयोग होता था। उस जमाने में शरीर को गर्म रखने के लिए वह सब साधन नहीं होते थे जो आज उपलब्ध है। बिजली नहीं थी और कृत्रिम तापमान बढ़ाने के साधन नहीं थे। मांसाहार शायद उनकी मजबूरी रही हो। यह मांसाहार किसी जाति से संबंध नहीं रखता था। यह मांसाहार उस भीषण सर्दी में आम जरूरत थी। समय के अनुकूल परंपराओं में चाहे वह धार्मिक हो या सामाजिक बदलना चाहिए। यह भी बदलाव का एक हिस्सा है। माली और किसान के बारे में तो मैंने पहले ही लिखा है कि वे फसल को तैयार ही अपने जीवन यापन के लिए करते हैं। इसलिए यह स्वाभाविक है कि वे फसल को तैयार करेंगे और काटेंगे। यह सब लिखने का प्रसंग इसलिए हुआ कि एक मित्र ने मुझसे प्रश्न पूछा था कि ईश्वर और माता-पिता में कौन सबसे बड़ा है और मैं किसे श्रेष्ठ मानता हूं। वे ईश्वरवादी थे परंतु मेरे उत्तर से उन्हें कुछ दुख पहुंचा। दुख स्वाभाविक भी था क्योंकि मैंने उनसे कहा कि मेरी नजरों में और मेरे तर्कों के आधार पर मेरे माता-पिता उनकी ईश्वर की कल्पना से भी बड़े नजर आते हैं। ईश्वर जैसे कि कहा जाता है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की। इस रचना का उद्देश्य स्पष्ट नहीं। यह रचना करने में ईश्वर की क्या लाचारी थी। इस पर दुनिया का कोई भी ग्रंथ प्रकाश नहीं डालता। दूसरे ईश्वर ने सृष्टि की रचना की, मानव को पैदा किया। उसके लिए अपनी रक्षा, विकास, ज्ञान, जीवन मूल्य, सत्य-असत्य आदि के लिए कोई ईश्वरीय सुरक्षा ऐसी नहीं दी जो प्रकट रूप में नजर आती हो। व्यक्ति बीमार हो तो उसे ईलाज के लिए वैद्य, हकीम या चिकित्सक दवा देगा और वह उसका मूल्य लेगा। कम ले, ज्यादा ले, सही या गलत ले इस पर अलग-अलग नजीर हो सकती हैं। इंसान अच्छे और बुरे हो सकते हैं। अंत में यह व्यक्ति की आर्थिक क्षमता पर भी निर्भर करता है। अगर ईश्वर या अल्लाह बुरे व्यक्ति को दंड दे रहा है, वह उसे दुबारा जन्म देता ही क्यों है? समाज के लिए कांटे बोने की आवश्यकता ही क्यों है? कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर धर्म, समाज के पास आज नहीं हैं और अगर आज हैं भी तो वे तर्क के पाये पर कम खड़े होते हैं। मैंने माता-पिता को सबसे ऊपर इसलिए माना है कि वे ना केवल बच्चे की रचना करते हैं, वो चाहकर करें चाहे ना चाहकर करें, जाने अनजाने करें पर रचना का माध्यम वही हैं। परंतु रचना या जन्म देने के बाद वे उसके सारे भौतिक और जीवन के दायित्व भी निभाते हैं। बच्चे का पालन-पोषण, रक्षण, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और यहां तक कि खुद उम्रदराज होने के बावजूद भी फिर बच्चों के बच्चे के प्रति भी, कुछ अपवाद छोड़कर उनका त्याग और समर्पण अतुलनीय होता है। माता-पिता तो अपने कृति के प्रति इतने स्नेहील होते हैं कि अगर अपनी जान देकर भी उनकी जान बच जाये तो बचाने को तैयार होते हैं। तो परंतु, जब आजकल अखबारों में, हर दिन ऐसी खबरें मैं पढ़ता हूं कि वृद्धजनों, अनाथालयों की संख्या देश और दुनिया में बढ़ रही हैं, इसके बावजूद भी वे जरूरत से अधिक भरे पड़े हैं। सारे ऐसे उदाहरण भी अखबारों में आये दिन छपते हैं कि अच्छा खासा वेतन पाने या कमाने वाले बच्चे अपनी सुख-सुविधा या भोग के लिए माता-पिता को घर से निकाल देते हैं, भीख मांगने को लाचार करते हैं। उन्हें वृद्धाश्रम, अनाथालयों या विधवा आश्रमों में छोड़ आते हैं, उन्हें भीख मांगने के लिए सड़कों पर छोड़ देते हैं। ये वृद्धजन भीख मांगकर जो पैसा जमा करते हैं और अपनी संतानों के लिये दे देते हैं। आजकल तो कुछ ऐसे ही घृणित अपराध मीडिया के माध्यम से सामने आ रहे हैं जो संतानें जिनके माता-पिता ने उन्हें जन्म दिया वे ही अपने माता-पिता के लिए शराब या नशे के लिए पैसा ना देने पर जान से मार देते हैं। ईश्वर से तो व्यक्ति कुछ डरता भी है, भले ही वह पुलिस से ज्यादा या ईश्वर से कम डरता हो, पर डरता है। माता-पिता की हत्या करते हुए भी, उन्हें सड़कों पर भीख माँगने के लिए लाचार करते हुए भी उन्हें पैसों के लिए मारपीट करते हुए भी, उन्हें कोई अपराध बोध नहीं होता। मैं नहीं समझ पाता कि ईश्वर ऐसे लोगों को क्यों पैदा करता है। अतरू मेरा निष्कर्ष यही है कि ईश्वर, किसान, माली और माता-पिता में कौन प्रथम हैं, मैं तो माता-पिता को ही मानूँगा। यहां मैं पंढरपुर के विऋल मंदिर की कथा बताना चाहूंगा। वहां विऋल भगवान की प्रतिदिन प्रार्थना पुंडलिक करते थे। एक दिन भगवान प्रकट हो गए उस समय पुंडलिक अपने पिता के पैर दबा रहे थे। उन्होंने एक ईंट रखकर भगवान से कहा कि आप प्रतीक्षा करें, मैं अभी पिताजी की सेवा कर रहा हूँ। आज भी विऋल मंदिर में श्री कृष्ण ईंट पर खड़े हुए हैं। आईये इस दीपावली पर अपने माता-पिता के सम्मान के प्रति संकल्प लें।











