श्रृद्धांजलि: क्रांतिकारी सोच, आक्रामक कलमकारी कर दिलों में छा जाने वाले संपादक मनोज तिवारी का निधन

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   नवीन जोशी

लखनऊ। मनोज तिवारी और मैंने पत्रकारिता की दुनिया में एक साथ ही कदम रखे थे। 1977 का साल था। ‘स्वतंत्र भारत’ से एक बड़ी अनुभवी टीम ‘अमृत प्रभात’ चली गई थी, जो उसी समय इलाहाबाद से अपनी शुरूआत कर रहा था। उनकी जगह सम्पादक अशोक जी नई टीम बना रहे थे। नए लड़कों को तलाश कर उन्हें सम्पादन-लेखन में तराशने में लगे थे। उसी प्रक्रिया में मनोज और मेरा चंद दिन के फासले से चयन हुआ था। जल्दी ही नए युवकों की एक बड़ी टीम स्वतंत्र भारत में खड़ी हो गई थी। वह बड़े जोश और उत्साह वाले दिन थे। मेहनत से काम और झगड़े के साथ मुहब्बत वाली दोस्तियां !

मनोज से मेरा कुछ खास याराना बनता गया। दफ्तर और दफ्तर के बाद हम बहुत देर साथ रहते। अनेक बार रात को लम्बी आवारागर्दी होती और अक्सर मैं उसके घर पर ही रह जाता। उसके बाबू भुवन चंद्र तिवारी ‘शूलपाणि’ हिंदी के लेखक थे। उन्होंने कई उपन्यास और नाटक लिखे। उनसे भी खूब बात होती। वे अच्छा मानने लगे थे और अपने उपन्यास पढ़ने को देते थे। हमारी संस्था ‘आंखर’ ने उनका एक नाटक भी मंचित किय अथा। मनोज से उनकी कई बातों पर तनातनी रहती।

मनोज स्वभाव में मुझसे ठीक विपरीत था, दबंग और आक्रामक। मैं उतना ही संकोची और दब्बू था। पढ़ाई के दिनों में मनोज अपने उग्र स्वभाव के कारण लखनऊ विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया था। फिर उसने अल्मोड़ा डिग्री कॉलेज से अपनी उच्च शिक्षा पूरी की थी। भीतर से वह नरम और सबकी मदद करने वाला था। पर्याप्त संवेदनशील भी। साहित्य का अच्छा पाठक था। एम एन रॉय के अनुयायी एस एन मुंशी जी के घर उसका खूब आना-जाना था। मुझे भी वही उनके पास ले गया था। उन्होंने अपने घर में थियोसॉफिकल सोसायटी का दफ्तर बना रखा था , जहां विशाल पुस्तकालय भी था। यदा-कदा मुंशी जी हम लोगों को किताबों और देश-दुनिया के बारे में बताते। मुंशी जी की पत्नी सावित्री निगम हमें बहुत स्नेह देतीं।

1983 में मैं नभाटा में आ गया। मनोज स्वतंत्र भारत में ही बना रहा। उसने वहां तरक्की की सीढ़ियां चढ़ीं।1990 में जब स्वतंत्र भारत का मुरादाबाद संस्करण निकालने का फैसला हुआ तो मनोज को उसका स्थानीय सम्पादक बनाकर भेजा गया। उसने बहुत मेहनत से वह संस्करण निकाला और स्थापित किया। उस दौर में भी वह नियमित फोन से सम्पर्क करता और कई मुद्दों पर सलाह लेता या प्रबंधन की कंजूसी और असहयोग के किस्से बताया करता था। स्वतंत्र भारत के मालिक नए जमाने से तालमेल नहीं बैठा सके। पहले मुरादाबाद संस्करण बंद हुआ, फिर धीरे-धीरे लखनऊ संस्करण भी थापर ग्रुप के हाथ बिक गया।

1991 में मैं दोबारा स्वतंत्र भारत पहुंचा तो मनोज से फिर दिन-रात का साथ रहने लगा था। 1996 में स्वतंत्र भारत को थापर समूह ने एक फाइनेंस कम्पनी के हाथ बेच दिया और उसके दुर्दिन फिर शुरू हुए। 1997 में मनोज ने अखबार छोड़ दिया और पत्रकारिता भी।

व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में भी वह कभी अराजक और तनिक उद्दण्ड तक हो जाया करता था। कुछ विचलन और विवाद भी उसके हिस्से आए। ऐसे मौकों पर मेरी उससे बहस होती। हम बीयर या पव्वा लेकर देर रात गोमती किनारे या किसी सुनसान सड़क पर बातें करते। वह मान जाया करता कि वही गलत था लेकिन मूल स्वभाव उसका अंत तक बदला नहीं। मनमानियां बहुत कीं उसने।

2021 के अंत या 2022 के शुरू में उसका फोन आया था कि गले में कुछ अटकता सा है। अल्ट्रासाउण्ड कराना है। जांच का नतीजा अच्छा नहीं निकला। भोजन नली में कैंसर था। उसका बड़ा बेटा मुदित मुम्बई में ही अच्छा काम कर रहा है। टाटा कैंसर संस्थान में उसका इलाज शुरू हुआ। दो-ढाई साल से ठीक ही चल रहा था और वह काफी समय लखनऊ रहने लगा था। धीरे-धीरे कैंसर फेफड़े तक पहुंच गया। कई दौर इम्युनोथेरेपी के चले और ठीक ही था वह। कोई महीने भर पहले मैं उससे मिलने गया था। ‘अब मैं ओला करके तेरे घर आऊंगा’, उसने कहा था। मुझे पता नहीं चल पाया कि अचानक तबीयत बिगड़ने लगी तो वह मुम्बई दौड़ा। इस बार डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे।

05 नवम्बर की दोपहर मनोज प्यारे की कहानी भर रह गई। मोबाइल पर प्रमोद जी का संदेश मैं शाम को साढ़े चार बजे देख पाया। फौरन महानगर स्थित उसके घर भागा लेकिन उसने तो मुम्बई से कूच करना चुना था। आशंका तो थी ही, फिर भी उसके जाने की खबर ने सन्नाटा-सा पैदा कर दिया था। सो, यह ध्यान में ही नहीं आया कि एक छोटी-सी खबर का हकदार तो वह है ही। उसके पुराने और बहुत अच्छे दोस्त, पूर्व कांग्रेसी और अब भाजपा सांसद जगदम्बिका पाल ने फोन करके याद दिलाया तो आज एक प्रेस नोट बनाकर भेजा। तभी यार के लिए यह विदाई टिप्पणी भी बन सकी।

कभी-कभी कुछ भी लिख पाना बहुत कठिन हो जाता है।  अलविदा दोस्त! अब तुम्हारा ‘हुर्र’ कभी सुनाई नहीं देगा।

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