आखिर राम अपने पैतृक घर पहुंच गये

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भरत मिश्र

लखनऊ। राम का जीवन आदर्श जीवन कहा जा सकता है। वाल्मीकि महाराज स्वयं अपनी राम कथा में बार-बार यह बताते रहते हैं। ऐसे श्री रामचंद्र जी हमारे पूर्वज थे। वे केवल हमारे ही पूर्वज नहीं थे, बल्कि उन्होंने अपने शासन काल में जो राज काज के मानदंड स्थापित किए, वे आज भी दुनिया भर के आदर्श कहे जा सकते हैं। अयोध्या में हजारों साल से हमारे पूर्वज श्री रामचंद्र जी का स्मृति स्थल बना हुआ था। वह स्मृति स्थल सारे देश को प्रेरणा व ऊर्जा देता था। श्री राम भारत के मानस की अभिव्यक्ति थी। नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा कि राम अपने घर में पहुंच गये हैं।

मैं जिस राम की बात कर रहा हूं, वे वाल्मीकि के लौकिक राम हैं जिन का अयोध्या में महाराज दशरथ के घर में माता कौशल्या के गर्भ से नवमी के दिन जन्म हुआ था। वे सूर्यवंश से ताल्लुक रखते थे और महाराजा रघु के कुल से होने के कारण रघुवंशी भी कहे जाते थे। रामचंद्र जी को परिवार की भीतरी कलह के कारण अयोध्या का राज्य मिलते-मिलते रह गया था। वे चाहते तो अपने पिता की आज्ञा का उल्लंघन भी कर सकते थे। परिवार के भीतर ही उन्हें कुछ ने ऐसा ही करने की सलाह भी दी थी। लेकिन रामचंद्र जी ने राज्य त्याग दिया और पुत्र धर्म का पालन किया। उनकी अद्र्धांगिनी सीता जी को उनके साथ वनों में जाने की कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन वे भी राज महल त्याग कर अपने पति के साथ बनवास में ही रहीं। उन्होंने अपने स्त्री धर्म का पालन किया। राम का जीवन आदर्श जीवन कहा जा सकता है। वाल्मीकि महाराज स्वयं अपनी राम कथा में बार-बार यह बताते रहते हैं। ऐसे श्री रामचंद्र जी हमारे पूर्वज थे। वे केवल हमारे ही पूर्वज नहीं थे, बल्कि उन्होंने अपने शासन काल में जो राज काज के मानदंड स्थापित किये। वे आज भी दुनिया भर के आदर्श कहे जा सकते हैं। अयोध्या में हज़ारों साल से हमारे पूर्वज श्री रामचंद्र जी का स्मृति स्थल बना हुआ था। वह स्मृति स्थल सारे देश को प्रेरणा व ऊर्जा देता था। श्री राम भारत के मानस की अभिव्यक्ति थी। विदेशियों ने भारत के शरीर और मानस दोनों को ही तोडऩे की कोशिश की। बाबर ने पानीपत की लड़ाई में भारत के शरीर को घायल किया और उसके बाद द्वितीय चरण में अयोध्या में भारत के मानस पर प्रहार किया।

मानस पर प्रहार के लिये उसे किसी ऐसे प्रतीक की जरूरत थी जो समन्वित रूप से भारतीय आत्मा के जुड़ा हुआ हो। अयोध्या में श्री रामचंद्र जी के स्मृति स्थल, मंदिर से बेहतर प्रतीक कौन सा हो सकता था? बाद में मुगल इतिहासकारों ने लिखना शुरू कर दिया कि मीर बाकी ने वहां मस्जिद का निर्माण करवाया। यह ठीक इतिहास नहीं है। यदि बाबर की मंशा मस्जिद बनाने की होती, तो वह अयोध्या में कहीं भी मस्जिद बनवा सकता था। वहां वह और मध्य एशिया से आये उसके सैनिक नमाज़ भी पढ सकते थे। लेकिन उसका उद्देश्य मस्जिद बनाना नहीं, बल्कि राम का मंदिर(घर) गिरा कर भारतीय मानस को घायल करना था। जब मंदिर गिरा तो उसी के मलबे से जो ढांचा खड़ा किया था,उसको मध्य एशिया के इतिहासकारों, अंग्रेज़ इतिहासकारों और बाद में कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने भी बाबरी मस्जिद कह कर प्रचारित करना शुरू कर दिया। मुगलों, अंग्रेज़ों की सत्ता समाप्त हो जाने के बाद, भारतीयों ने ‘भारत’ के शरीर और मानस पर उस दौर में जो घाव हो गये थे, उनकी मरहम पट्टी शुरू की। इसके सबसे बड़े शल्य चिकित्सक सरदार पटेल थे। उन्होंने बिना समय गंवाये सोमनाथ से यह काम चालू कर दिया। लेकिन भारतीयों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब ‘भारतीय आत्मा’से कट चुके कुछ भारतीय सत्ताधारियों ने ही उसका विरोध करना शुरू कर दिया। दुर्भाग्य से पटेल जल्दी ही गोलोकवासी हो गये, लेकिन भारतीयों ने सामूहिक रूप से मरहम पट्टी का यह काम जारी रखा। उस शल्य चिकित्सा में बाबर द्वारा अयोध्या में बनाये गये एक ढांचे को गिराना भी शामिल था। लेकिन यह किसी मजहब के इबादत खाने को गिराने का मामला नहीं था। यह आक्रमणकारियों द्वारा फैलाये गये प्रदूषण को साफ करने का मामला था। लेकिन भारत में रह रहे एटीएम यानी अरब, तुर्क और मुगल मूल के मुसलमानों ने इसे अपने पूर्वजों द्वारा भारत की विजय को अब पराजय में बदलने की क्रिया के रूप में माना।

वे समझ तो गये कि भारत में अब अरबो, तुर्कों और मुगलों का युग बीत चुका है। जवाहर लाल नेहरू भी अब नहीं हैं । इसलिये बाबर की स्मृतियों को संभालने के लिये भारत के देसी मुसलमानों को मैदान में उतारना पड़ेगा। इसलिए जब बाबर की इस निशानी को जब गिराया गया, तो एटीएम के लोगों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी है, इससे भारत का मुसलमान आहत हो गया है । भला भारत के देसी मुसलमान का बाबर से क्या रिश्ता है? मध्य एशिया से आये हुये कुछ गिनती के मुसलमानों को छोड़ कर, जो अपने आप को बाबर के वंशज कह सकते हैं, शेष मुसलमान तो यहीं के देसी मुसलमान है, उनका राम से संबंध है न कि बाबर से। तो वे बाबर के बनाये ढांचे के गिरने से नाराज़ या आहत क्यों होंगे? वे हुये भी नहीं, बल्कि अपने वक्त में उनके पूर्वज तो उस समय दु:खी हुये होंगे जब बाबर के सैनिक राम का मंदिर गिरा रहे होंगे। मोटे तौर पर भारत के देसी मुसलमान इस बार एटीएम के झांसे में नहीं फंसे। अयोध्या में बना वह बाबरी ढांचा गिरा तो सभी को लगा कि अब जल्दी ही रामचंद्र जी की स्मृति में पुराना मंदिर एक बार फिर साकार हो जायेगा।

लेकिन हद तो तब हो गई जब राम नवमी की छुट्टी देने वाली भारत सरकार ही चिल्लाने लगी कि अयोध्या में रामचंद्र नाम का कोई व्यक्ति कभी पैदा ही नहीं हुआ था। यह सब काल्पनिक कहानी है। इतना साहस तो बाबर और उसके बाद के मध्य एशिया के हमलावर भी नहीं कर सके थे। यदि राम काल्पनिक होते तो बाबर की सेना को भारत में उनकी स्मृति से जुड़े स्थानों को गिराने की जरूरत ही नहीं थी। अरब देशों और तुर्कों ने भी चीखना चिल्लाना शुरू किया। इससे एटीएम भारत में और ज्यादा ज़ोर से ढोल पीटने लगा। लेकिन इससे एक लाभ भी हुआ। भारत का देसी मुसलमान समझ गया कि इस देश में रह रहा अरब, तुर्क और मुगल मूल का मुसलमान अपने आपको भारत के देसी मुसलमान से नहीं जोड़ता, बल्कि अपने आप को विदेश के अरब और तुर्क के ज्यादा नज़दीक मानता है। वह अभी भी अपने आप को भारत को जीतने वाले विदेशियों से जोड़ता है।

देसी मुसलमानों ने स्वीकार किया कि हमारे पुरखे तो इसी देश के रहने वाले थे। उन्होंने अपना मजहब बदला था, राष्ट्रीयता नहीं। भारत के देसी मुसलमानों ने राम के मामले में पहली बार एटीएम के सैयदों के आदेश को मानने से इंकार कर दिया। यही कारण है कि भारत का देसी मुसलमान अयोध्या में राम के आने पर बाकी देशवासियों के साथ जश्न मना रहा है। श्रीनगर तक में लाल चौक पर वे मुसलमान जिन के पूर्वजों ने कभी मजहब बदल लिया था, राम के अयोध्या आने पर बधाईयां देते देखे गये। पांच सौ साल बाद राम अयोध्या में वापस आये हैं, यह निश्चय ही भारतीय अस्मिता के पुन: जागरण के काल के उदय का संकेत है। नरेंद्र मोदी ने सही कहा है। यह अवसर किसी फिरके की जीत या किसी फिरके की हार का नहीं है। बल्कि यह भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का संकेत है।

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