नवेद शिकोह
लखनऊ। उ.प्र.राज्य मुख्यालय मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति चुनाव २०२४ पीक आवर्स में खबरों से जूझ रहे मीडियाकर्मियों को तीस अगस्त तक खतरा बना रहेगा, कब कौन सिर पर आकर खड़ा हो जाए और बोले- मैं फलां, फलां पद का फलां-फलां प्रत्याशी हूं, वोट की गुजारिश है ! ऐसे बहुत सारे आएंगे, चुनाव प्रचार का एक कार्ड आपके हाथ में पकड़ा कर चले जाएंगे। आपकी टेबल पर बहुत सारे कार्ड इकट्ठा हो जाएंगे। आखिर में सब कार्ड आप डेस्टबिन में डाल देंगे। लेकिन आपके पीक आवर्स का अच्छा खासा वक्त बेकार हो चुका होगा। खबरों पर चौकन्ना निगाहें कुछ देर के लिए ही सही पर डिस्टर्ब जरुर होंगी। १५ अगस्त को देश को आजादी मिली थी, ३१ अगस्त के बाद मान्यता प्राप्त पत्रकारों को बार-बार फोन करके वोट मांगने वालों से निजात मिल जाएगा। क्योंकि ३१ अगस्त को मान्यता समिति का चुनाव सम्पन्न होना है। ऐसे सितम एक सितंबर को खत्म हो जाएंगे, इस दिन चुनावी नतीजा आ चुका होगा। चुनावी नतीजे आते ही एक तस्वीर सोशल मीडिया पर तैरेगी। इस तस्वीर में नवनिर्वाचित उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय संवाददाता समिति माला पहले खड़ी होगी। बस यहीं पत्रकारों के इस चुनाव के चुनावी शो के सिनेमाघर में ताला पड़ जाएगा। फिर दो-तीन बरस बाद इस ज़ंगाहे ताले को तोड़कर चुनावी राजनीति का पुनः प्रयास शुरू होगा। पत्रकारों की खामांखा की राजनीति को समय का चक्र बस ऐसे ही गोल-गोल घुमा रहा है।
संवाददाता समिति की चुनावी गहमागहमी में अलग हट कर पुरानी बात याद आ गई। सुबह-सुबह ईद मिलने दोस्त के घर गए। उसका ६-७ बरस का बेटा नये कपड़े पहन कर अपने अब्बा के पास आया और बोला- “अब्बा जान आदाब”। अब्बा बोले इतना अदब हर रोज़ तो नजर नहीं आता ! बच्चा खामोश था और मैंने भी बच्चे से एक सवाल पूछ लिया- क्या रोज अपने अब्बा जान को आदाब करते हो। बोला- नहीं, आज ईद है ना इसलिए। मासूमियत से आगे बोला- ईद के दिन नहाते हैं और नए-नए कपड़े भी पहनते है। बड़ों से ईदी जो मांगना होती है। ऐसे ही जैसे चुनाव लड़ने वाले पत्रकार किसी का भले ही कभी हाल-चाल ना लें। वर्किंग जर्नलिस्ट का दुख-दर्द जानते भी ना हों, पर चुनावी मौसम में पत्रकारों को फोन पर फोन कर रहे हैं। पीक आवर्स में अखबारों के दफ्तरों में वोट मांगने की परेड कर रहे हैं। ननमस्ते,आदाब, प्रणाम, बड़े भाई, छोटे भाई, सर, बहन जी, भाई जान, गुरुजी… वोट के लिए रिश्तों के सारे सुर छेड़े जा रहे हैं। राज्य मुख्यालय संवाददाता समिति के चुनाव के प्रत्याशी उस समिति में जाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं जो समिति बेजान बनी रही है। कारण ये है कि उम्मीदवार बस चुनाव जीतकर खुद की पहचान में जान फूंकना चाहता है। वो ये जता कर अपना कद बढ़ाना चाहता है कि कई सौ राज्य मुख्यालय के पत्रकारों ने विधानसभा में हुई चुनावी प्रक्रिया में उसे निर्वाचित किया है। इस तरह उम्मीदवार अपना शक्ति प्रदर्शन करने की मंशा में दिनों रात मेहनत कर रहे हैं। विधानसभा के प्रेस रूम से लेकर जगह-जगह पर चुनाव प्रचार की हलचलें एक प्रचलित मुहावरा चरितार्थ कर रही हैं- “सूत ना कपास जुलाहों में लट्ठम लठ्ठा” लखनऊ के पत्रकार इस बात के लिए एक मत हैं कि उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय संवाददाता समिति किसी काम की नहीं। किसी के कभी काम नहीं आती। और ना उम्मीद है कि आगे कुछ बेहतर हो।
लगभग तीन-चार दशक पहले सरकारी प्रेस वार्ताओं का समय निश्चित करने में पत्रकारों और प्रेस वार्ता आयोजकों के बीच समन्वय बनाने के उद्देश्य से बनी संवाददाता समिति का अब आम हो चुकी सोशल मीडिया के जमाने में कोई काम नहीं रह गया। और बड़े मसलों पर इसकी भूमिका नगण्य ही है। फिर भी जिस तरह सुहागिन की मौत पर अग्नि देने से पहले उसे दुल्हन बनाया जाता है वैसे ही बेजान संवाददाता समिति को चुनावी मौसम की गहमागहमी में दुल्हन सा सजाया जाता है। कुछ भी हो इस चुनावी तिलिस्म में बड़ा जोश-खरोश, उत्साह, छल-कपट, अय्यारी , धन,बल, झूठ,सच, क्रांति सबकुछ है। गहमागहमी किसी उत्सव जैसी है। जो रोज़ नहीं नहाते वो भी नहा लेते है। नए-नए कपड़े पहनते है। (यहां नहाने और नये कपड़े पहनने का आशय है साफ-सुथरा और आकर्षक बनने का प्रयास) संघर्षों और व्यस्तता भरी जिन्दगी में मीडियाकर्मियों को इतना समय नहीं मिलता कि वो एक दूसरे से मिलें, उनसे बात करें, जानें कि हमारे मीडिया परिवार में कौन कौन है, कितने लोग हैं। किसका क्या हाल है, कौन सुखी है और कौन दुखी है। कौन स्वस्थ है और कौन बीमारी की हालत में बिस्तर पर पड़ा है।
संवाददाता समिति के चुनाव में दावेदारी करने वाले लगभग एक सैकड़ा प्रत्याशी पत्रकार साथियों से इसी बहाने कनेक्ट होते हैं। (हांलांकि कनेक्ट होने के लिए पीक आवर्स में मीडिया कार्यालयों में प्रचार के लिए घुसना या उनको बार बार फोन करना जो आपको जानते तक नहीं, ये ठीक नहीं।) जिनसे बरसों बात-मुलाकात नहीं हो पाती ऐसे अपने परिचित जूनियर -सीनियर्स पत्रकारों से चुनाव के बहाने ही कनेक्ट होना अच्छी परंपरा है। यही एक वजह है कि समिति को जीरो मान कर भी मैं भी इसके चुनाव में सम्मिलित होता हूं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सम्मिलित होने का शौक़ पूरा करने के लिए। मीडिया का गेट-टुगेदर, समागम, उत्सव या एक दूसरे से कनेक्ट होने के बहाने ये भी पता चलता है कि हममें घरेलू चुनावी लड़ने के कितने गुण हैं, या हम कितने अनाड़ी है। या पत्रकार साथी हमे कितना प्यार करते हैं। हमारे पेशे के परिवार मे हमारा कितना सम्मान है ! हांलांकि इस पूरी चुनावी प्रक्रिया में अलग-अलग अनुभव भी देखने को मिलते हैं। अन्य बड़े चुनावों की तरह कहीं कहीं पर धर्म और जाति की भी गोटें भी बिछती हैं। कौन पत्रकार है, कौन गैर पत्रकार है ! कौन प्रकाशक है और कौन खाटी पत्रकार ! इस चुनाव मे हर प्रकार की सियासत और चुनावी मसाला देखने को मिलता है। एक्शन, कॉमेडी और रोमांच से भरपूर मसाला फिल्मों की तरह।
मैं पत्रकारिता के सफर के तकरीबन तीन दशकों में एक दशक तक पत्रकारों की राजनीति या संवाददाता समिति से बेखबर रहा। इसके बाद करीब आठ-दस वर्ष चुनावी उत्सव को दूर से देखा। और पिछले एक दशक से अधिक समय से समिति की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शरीक होता रहा हूं। एक बार २३५ वोट हासिल करके जीता भी। पिछले चुनाव में “मुझे हरा दो” नारे के साथ संयुक्त सचिव पद पर चुनाव लड़ा और चंद वोटों से हारा। इस बार भी संयुक्त सचिव पद पर दावेदारी की और फिर ये सोच कर पर्चा वापस ले लिया कि नौ सौ पत्रकारों से संपर्क करना मेरे बस मे नहीं। घर-घर, आफिस-आफिस जाना तो बहुत दूर की बात है। फिर फैसला किया कि कार्यकारिणी सदस्य की आसान दावेदारी कर लूं ! इस उम्मीद से कि लखनऊ के खाटी पत्रकार जो लम्बे समय तक मेरी जमीनी पत्रकारिता का संघर्ष देख चुके हैं, जो मुझे पढ़ चुके हैं, अग्रज जिन्हें पढ़कर मैंने सीखा है, वो दोस्त और अनुज जिनके साथ हमने आधा दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित अखबारों,मीडिया संस्थानों में काम किया है। जिन टीवी चैनलों के डिबेट शो में शरीक होता हूं, उन ब्रांड वेबसाइट्स और प्रतिष्ठित अखबारों में मैं बतौर स्वतंत्र पत्रकार लिखता हूं, पत्रकारिता परिवार के वो *पत्रकार साथी मुझे चार सौ वोटों का रिकॉर्ड समर्थन देंगे।
और मैं आपकी दुआओं और सहयोग से “चार सौ पार” का लक्ष्य पूरा कर इसे आपका प्यार, इनाम या प्रोत्साहन मांगूंगा*। बाकी ये सब कहना कि संवाददाता चुनाव जीत कर आ गया तो आपके लिए ये कर दूंगा.. वो कर दूंगा.. ये फिजूल बाते हैं। विशुद्ध नेतागिरी है। सच ये है कि नवनिर्वाचित कमेटी के पदाधिकारी जीत कर गले मे माला डाल कर ग्रुप फोटो खिंचवाएंगे। अपने को पत्रकारों का नेता बताने के लिए ये लश्कर अधिकारियों के कमरे में घुसेंगी। गले में पड़ी मालाएं सूख जाएंगी और फिर दो-तीन बरस तक सीमित की तस्वीर पर माला पड़ जाएगी। नवेद शिकोह