रघु ठाकुर
नई दिल्ली। 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में राम मंदिर के पुन: निर्माण का काम पूरा हो गया है, और उसका औपचारिक उद्घाटन या धार्मिक शब्दावली में कहें तो रामलला की मूर्ति का प्राण-प्रतिष्ठापन भी हो गया है। यह सही है कि संघ या भाजपा ने इस आयोजन के लिये आगामी लोकसभा चुनाव का एक मजबूत घोषणा पत्र बना लिया है और इसमें कोई दो राय नहीं है कि जिस बड़े पैमाने पर उन्होंने देश के आम मानस को स्पर्श और उद्वेलित किया है, उसका लाभ उन्हें मिलेगा।
22 जनवरी को तो देश के लाखों मंदिरों में स्वेच्छा से भजन-पूजन व भंडारे हो रहे थे। मीडिया के आक्रामक प्रचार के सहारे लगभग हर व्यक्ति अयोध्या के इस आयोजन को देखना चाहता था। प्रधानमंत्री ने 11 दिन का जो परंपरागत व्रत संयम होता है, उसे अपनाया और निर्विवाद रूप से आज देश में एक हिन्दू के प्रतीक के रूप में उनकी छवि सबसे प्रभावी निर्मित हुई है। गाँव-गाँव गली-गली में दीप जलाये गये और जो भी आवाहन मंदिर निर्माण समिति या प्रधानमंत्री की ओर से किया गया उस पर बड़ी आबादी ने स्वेच्छा से पालन किया। और इसका एक पक्ष यह भी है कि जो हजारों संभावित पुजारी बनेंगे वे भी इस आयोजन में स्वेच्छा से सक्रिय थे, क्योंकि उन्हें इन गाँव-गाँव के छोटे-छोटे मन्दिरों में अपना रोजगार व भविष्य नजर आ रहा था। इस आयोजन को जनमानस में हिन्दू विजय के रूप में पहुंचाने के लिये यह कहा गया कि 500 वर्ष के बाद रामलला वापस अयोध्या आये हैं। इसके गहरे अर्थ हैं…। एक तो यह कि मुगल काल में बाबर के हुकुम पर मीर बाकी ने मस्जिद को तामीर कराया था और मन्दिर को तोड़ा गया था, वह राष्ट्र की पराजय थी और अब मस्जिद को तोड़कर मन्दिर बनाना राष्ट्र की जीत है।
यह सही है कि देश में आम लोगों ने इसे इसी भाव से ग्रहण किया कि जैसे मुगल काल की पराजय का बदला ले लिया गया हो। पर जब भावनाओं का यह तूफ़ान छंटेगा तब शायद समाज इन प्रश्नों पर विचार करे- 1. इन 500 वर्षों तक रामलला कहां रहे ? 2. क्या वजह थी कि, बाबर जो विदेशी आक्रांता था, ने जब अयोध्या में राम का मन्दिर तुड़वाया था, बाबरी मस्जिद बनवायी, तब देशवासी मूक क्यों थे और उसके कारण क्या हैं ? 3. इस आयोजन के समय रामराज्य की भी चर्चा हुयी और ऐसा प्रचार किया गया कि अब राम वापस आ गये हैं, तो रामराज्य भी वापस आयेगा। यह कितना सच हुआ ? जहां तक पहले बिंदु का सवाल है, तो हमारे देश में मुगल बाहरी आक्रमणकारियों ने आकर देश में अपनी सत्ता स्थापित की, यह इतिहास का तथ्य है,। परंतु यह क्यों संभव हुआ? क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में छोटे-छोटे राजवाड़े थे जो आपस में लड़ते थे और विदेशी हमलावर के समक्ष शक्तिहीन थे। यहां तक कि वे कई बार विदेशी आक्रमणकारियों के लिये देशी राज्यों को जीतने में सहयोगी भी बने। अगर भारत विदेशी गुलामी का शिकार हुआ, वह चाहे मुगलों का हो या अंग्रेजों का तो इसका बड़ा कारण जाति प्रथा ही रहा है, और इसके साथ-साथ कुछ अंधविश्वास और कुछ परंपराएं भी कारण रही हैं।
लड़ाई राजाओं में होती थी। वे देशी हों या परदेशी, जनता तो जीतने वाले को स्वीकार करती थी। यह स्थिति मुगलकाल से लेकर ब्रिटिश काल तक रही। मुगल शासकों ने भारतीय राजाओं को अपने अधीन कर देश की जाति व्यवस्था को ेबदलने या उस पर चोट करने का कोई प्रयास नहीं किया क्योंकि उन्हें इसकी आवश्यकता महसूस नहीं हुयी। ताकतवर जातियों ने अपने राजपाट के लिये अधीनता स्वीकार कर ली और कुछ कमजोर जातियों के लोग नये राजाओं के साथ अपने आप हो लिये। ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने अवश्य देश के जातीय अंतर्विरोधों, ऊँची जातियों के द्वारा निम्न जातियों के शोषण व दमन के प्रतिकार के लिये कुछ कदम उठाये। हालांकि अंग्रेजों का उद्देश्य भी कोई सामाजिक विषमता को दूर करना नहीं था, बल्कि समाज के एक बड़े व पीडि़त तबके को उसकी जातीय व्यवस्था की पीड़ा व दंश से मुक्ति दिलाने के नाम पर अपने शासन के समर्थ न में प्रयोग करना था। महात्मा गाँधी ने जिस प्रकार से जांत-पांत व धर्म के बंधन को ढीला कर संपूर्ण देश को ब्रिटिश से आजादी की लड़ाई लडऩे के लिये एकजुट किया था, उसकी काट के लिये भारत की हो रही एकजुटता को तोड़कर गाँधी के आंदोलन को कमजोर करने के लिये यह अंग्रेजों का एक तरीका था। जो अंग्र्रेज अपने उप निवेशों में चमड़ी के रंग के आधार पर जुल्म करते थे, गोरा रंग शासन का प्रतीक का व काला रंग गुलामी का था, वही अंग्रेज भारत में जातीय दमन को लेकर चिंतित होते थे। उनकी चिंता भारतीय समाज के लिये जातीय मुक्त कराने की नहीं थी बल्कि भारत के आजादी के आंदोलन को जातीय आधार पर बांटने की थी।
महात्मा गाँधी के प्रति जो अटूट विश्वास देश के खेत खलिहान कस्बों से लेकर समूचे देश में था, वह इतना गहरा था कि कुछ छुटमुट बुलबुले भले फू टे हों पर देश आमतौर पर एक जुट हुआ और उनके पीछे चला। नि:संदेह राममन्दिर का पुननिर्माण कराकर केन्द्र की सत्ता ने देश में एक राष्ट्रीय गौरव की भावना पैदा की है। परंतु क्या यह तथ्य नहीं है कि आज अगर मस्जिद को तोड़कर मन्दिर का निर्माण हो सका तो यह भारत की आजादी का ही प्रतिफ ल है? अगर देश आजाद नहीं होता और लोकतांत्रिक सत्ता स्थापित नहीं होती आ ैर सत्ता का बड़ा तंत्र कई करोड़ कर्मचारी, लाखों पुलिस बल सेना सरकार के माध्यम से हिन्दू समाज के स्वघोषित प्रवक्ताओं के अधीन नहीं आते तो क्या यह पुर्नजागरण संभव था? कितना अच्छा होता कि अगर प्रधानमंत्री मन्दिर के निर्माण व प्राण-प्रतिष्ठा के आयोजन के समय महात्मा गाँधी को याद करते और कहते कि बापू ने जो लोकतंत्र हमें दिया था, आज उस लोकतंत्र का ही कारण है कि यह संभव हो सका है। हालांकि प्रधानमंत्री व उनकी समर्थ के जमातों की मानसिक कठिनाई मैं समझता हूं, क्योंकि संघ व प्रधानमंत्री के लिये राम एक हिन्दू सत्ता के नाम पर अपनी सत्ता को कायम करने का हथियार है। तथा राम के साथ व राम के नाम पर जो काल बाहय परंपरायें हैं, पर जाति सत्ता के लिये उपयोगी है। उनके लिये राम की गाँधी की कल्पना को स्वीकार करना आत्महत्या जैसा कदम होगा। गाँधी के रामराज्य में किसी को कोई पीड़ा नहीं है। जिनकी राजनीति व सत्ता का जन्म कारपोरेट उद्योगपतियों की थैलियों से होता हो, जिनका विश्वास आर्थिक व सामाजिक विषमता की व्यवसायिकता में हो, उन्हें गाँधी व गाँधी के राम से दूर रहना उनकी मजबूरी है। महात्मा गाँधी ने राम को एक ऐसी ईश्वरी शक्ति के रूप में देखा जो इसंान-इंसान में कोई भेद नहीं करती, जो पूर्णत: स्वतंत्रता और व्यक्ति की आजादी का पर्याय है, जो मानवीय दुखों व संवेदनाओं से समाज को मुक्त करना चाहता है।
गाँधी के राम राजा नहीं है बल्कि गाँधी के राम जन-जन हैं। तुलसी दास ने भी राम की जो कल्पना की वह एक नियंत्रक शक्ति के रूप में थी परन्तु इसे जन-जन की समानता और दुखों से मुक्ति के रूप में ही देखा। यह तुलसीदास ने ही लिखा है कि, तुलसी ममता राम सौ-समता सब संसार, राग न दोषन दोष दुख-दास भये भव पार, यानि, तुलसी राम को एक ऐसे ममता के प्रवाह के रूप में देखते हैं कि जिसमें सारे विश्व में समानता है, जिसमें किसी के भी प्रति केाई राग यानि मोह, कोई गुस्सा, कोई दोष और कोई दुख नहीं है बल्कि इन सब प्रवृतियों से ग्रस्त जो लोग हैं वे सब उन दोषों से युक्त होकर दुनिया को पार करते हैं। यानि तुलसी वही आंतरिक चेतना जगाने का काम कर रहे हैं जो महात्मा गाँधी ने दुनिया में जगाने का प्रयास किया था। तुलसीदास लिखते हैं – सिया राम, भय सब जग जनी... यानि दुनिया सियाराम मय है तो उसमें किसी भी प्रकार के भेद-भाव, जाति धर्म, अर्थ , काम,मोह आदि की संभावना ही नहीं है। हर व्यक्ति में अगर वह पुरूष है तो उसमें राम है और अगर वह नारी है तो उसमें सीता है और इस प्रकार हर व्यक्ति समान है, और समान रूप से सम्मानीय है। पुरूष व स्त्री के मध्य कोई भेद नहीं है क्योंकि तुलसी के अकेले राम नहीं है और न अकेली सीता है, बल्कि सिया राम है। जिसमें नारी पहले है और पुरूष पीछे है। गाँधी के राम और तुलसी के यह राम की कल्पना कितनी एक है। जो समाज चेतना तुलसी राम के नाम से देखते हैं वही आंतरिक चेतना, गाँधी निर्माण करना चाहते हैं। या कहें कि हर व्यक्ति के अंदर दबी उस आंतरिक चेतना की लौ को प्रकाशमान करना चाहते है इसलिये गाँधी की प्रार्थना है कि ‘वैष्णव जन तो तेनेरे कहिये पीड़ पराई जाणे रे’, इंसान वही है, हिन्दू भी वही है, जो दूसरे की पीड़ा को समझता हो। जो दूसरे की सेवा करने को तत्पर हो पर उस सेवा के लिये उसके मन में कोई अभिमान न हो, वह सेवा मानव होने का दायित्व है, अगर आप इंसान हैँ तो, यह आपका स्वाभाविक कर्तव्य है। महात्मा गाँधी जिस राम राज्य की स्थापना करना चाहते थे। वह राम राज्य क्या है? तुलसी दास ने लिखा है कि ‘अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा‘ यानि एक ऐसा राज्य जिसमें कम उम्र में किसी व्यक्ति की मृत्यु न हो और जिसमें किसी के लिये कोई पीड़ा न हो।
क्या ऐसा राज्य गाँधी और लोहिया की कल्पना का समाज और राज्य नहीं है। अल्प मृत्यु क्यों होती है ,कुपोषण, प्रदूषण गरीबी, चिकित्सा का अभाव, दुर्घटना, यही सब तो अल्प मृत्यु के कारण है और गाँधी के राम राज्य में इनको कोई स्थान नहीं है। गाँधी के राम राज्य में किसी को कोई पीड़ा नहीं है। यानि हर व्यक्ति दुख व पीडा से मुक्त है। उसे न अभाव का दुख है, न ईष्र्या या शत्रुता का दुख है, न किसी भय, आतंक या हिंसा का दुख है, वह सभी प्रकार के दुखों से मुक्त है। तुलसीदास कहते हैं कि ‘दैहिक, दैविक भौतिक तापा रामराज काहु नहीं व्यापा,‘।यानि ऐसा राज्य जिसमें शरीर का कोई दुख न हो, जिसमें कोई प्राकृतिक दुख न हो, अकाल, सूखा,बाढ़, ज्वालामुखी, भूकंप जैसी कोई दैविक विपत्ती न हो, कोई भौतिक पीड़ा न हो…। यही गाँधी की कल्पना का राम राज्य है। अब ऐसा राज्य तो के वल समाजवाद की व्यवस्था में हो सकता है। वो समाजवाद जिसकी कल्पना एक स्वतंत्र व्यक्ति के अस्तित्व के रूप में होती है, जहां व्यक्ति पूर्णत: स्वतंत्र है और उसे राजा के तंत्र का भय नहीं। यानि एक उन्नत लोकतंत्र की कल्पना तुलसी की है। रामराज्य के रूप में वही कल्पना रामराज्य की गाँधी की है और वही कल्पना लोहिया के समाजवाद की है। राम के राज्य के लोकतंत्र और रावण के राज्य की तानाशाही का फर्क जाना जा सकता है। राम के राज्य में एक सामान्य व्यक्ति उनकी पत्नी पर आरोप लगा सकता है और उसे आरोप लगाने के लिये कोई दण्ड नहीं दिया जाता है, उसे राज्य दण्ड का कोई भय नहीं है परन्तु जहां पर इंसान के बोलने की आजादी न हो, राजा या सरकार के ऊपर उंगली उठाने की अनुमति न हो वह रामराज्य नहीं है।
गाँधी के रामराज्य की यही कल्पना थी और इसे गाँधी ने अपनी जीवनशैली में उतारा था। उनकी प्रार्थना सभा एक लोकतांत्रिक जन अदालत थी जिसमें हर व्यक्ति को अपनी बात को कहने का अधिकार था और वह गाँधी से सवाल पूछ सकता था और गाँधी को उस सवाल का उत्तर देना अनिवार्य बाध्यता थी। यानि जनता के बोलने की आजादी और राजा या सत्ता को उत्तर देने का दायित्व यह लोकतंत्र की मूल अवधारणा है जो गाँधी के राम राज्य की कल्पना में मिलती है। गाँधी का रामराज्य कोई प्रतिमा पूजा का राम राज्य नहीं था बल्कि वह इन अंधविश्वासों से मुक्ति का रामराज्य था। राम ने किसी मंदिर का निर्माण नहीं किया, राम ने समुंद्र की पूजा की यानि जल शक्ति की पूजा की। राम ने वनवासियों को गले लगाया, उन्हें बराबर का साथ दिया। प्रकृति की पूजा व संरक्षण यह भी रामराज्य की अवधारणा थी। रामराज्य में राजा महलों में नहीं सोता था बल्कि एक सामान्य व्यक्ति के समान वह जमीन पर बैठता था। तुलसीदास ने लिखा है कि महल के बावजूद भी राम बिछावन पर बैठते हैं, बिछावन का तात्पर्य जमीन पर बिछा चादर। वैसे भी दुनिया में जो लोग महानतम माने गये हैं उनके जीवन में यही सादगी महत्वपूर्ण रही है।
बुद्ध ने जो ज्ञान दिया वह वृक्ष के नीचे बैठ कर दिया। किसी सिंहासन पर बैठकर नहीं दिया। शंकराचार्य जमीन पर बैठते थे मठ पर लेटते थे, तुलसी जमीन पर बैठते थे, संत रविदास कबीर भी जमीन पर बैठते थे और गाँधी भी उस जमीन पर ही एक दरी चादर बिछाकर लेटते थे। इस सारे आयोजन ने एक और प्रश्न बौद्धिक जगत में खड़ा किया है और यद्यपि आज नहीं परन्तु कालांतर में यह प्रश्न आमजन का प्रश्न बनेगा कि क्या ईश्वर पत्थर की तराशी प्रतिमा में हो सकते हैं? स्वामी दयानंद आर्य समाजी हिन्दू थे और इन्होंने इसका जोरदार खण्डन किया था। अगर पाषाण प्रतिमा में ईश्वर हंै तो वह क्या अपने मंदिर का अपनी प्रतिमा का स्वत: बचाव नहीं कर पाता ? सोमनाथ के मंदिर को बाह्य आक्रमणकारियों ने तोड़ा। पर अगर उसमें शिव थे तो फि र क्या वह संभव होता ? दरअसल मंदिर, मठ, और प्रतिमायें, ये तो एक व्यक्ति के मस्तिष्क में कल्पना पैदा करने का माध्यम है। यह प्रतीक है मूल नहीं, परन्तु हमारे मुल्क में अंध विश्वास जो पहले भी बहुत गहरा था और जिसका योगदान देश की गुलामी में भी रहा है, आज और गहरा कर दिया गया है।
एक सवाल यह भी है क्या प्रतिमा में प्राण डाले जा सकते हैं? हिन्दू दर्शन कहता है कि आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है। यानि आत्मा और प्राण कभी नष्ट नहीं होते। मैं इसकी तर्क पर नहीं जा रहा हूं परन्तु इसी के आधार पर विचार कर रहा हुं कि एक सोने की छड़ी से किसी पाषाण प्रतिमा में प्राण कैसे डाले जा सका है और अगर प्राण डाले जा सकते हैं तो वह प्रतिमा तो इंसान हो जायेंगी। क्या प्रतिमा एक मानव के वह सारे कार्य कर सकती है ? दरअसल हिन्दू दर्शन और पुरोहितवाद में फर्क है। पुरोहितवाद प्रतिमा के नाम पर पेट पालन और पेट पालन के लिये अंध विश्वास खड़े करना है।
हिन्दू दर्शन एक तार्किक समता के समाज की कल्पना है जहां न राजतंत्र है न राजदण्ड है बल्कि व्यक्ति ही सत्य है, मूल्य है और वही ईश्वरीय रूप है। राम की प्रतिमा को बहुत कीमती कपड़ों या आवरणों से ढका गया है, परन्तु देश के जनमानस में राम धनुधारी तो हैं परन्तु सम्पन्नता के पर्याय नहीं हैं। उनका धनुष बाण न्याय की रक्षा और अन्याय के खिलाफ है। वह विषमता का रक्षक नहीं है। इस आयोजन ने भारतीय जनमानस में बसे उस धोती और अंगोछे या खुले शरीर पर टंगे धनुषबाण के राम की कल्पना को तोड़कर संपन्नता के प्रतीक राम में बदलने का अपराध किया है। शायद समय इसका उत्तर मांगेगा। अंत में, मैं गाँधी और लोहिया की कल्पना के अनुसार उम्मीद करूंगा कि शायद वह दिन आये जिस दिन दुनिया में गाँधी की कल्पना का राम राज्य और लोहिया की कल्पना के राम की मर्यादा प्रतिस्थापित हो। शायद वह दिन समूची दुनिया में सबसे बेहतर होगा।