चुनाव आयोग की ‘ईमानदारी’ लोकतंत्र की ‘आत्मा’ है

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       रघु ठाकुर

नई दिल्ली। देश में जनतांत्रिक प्रणाली को सफ ल बनाने के लिये निष्पक्ष और पैसे के प्रभाव से मुक्त चुनाव होना आवश्यक है। ऐसे चुनाव के लिये एक ऐसे चुनाव आयोग की आवश्यकता है जो नियमों में भी सुधार करें और अपनी कार्य पद्धति को भी आमजन के लिये सुलभ बनाये। पिछले वर्षों में चुनाव आयोग के बारे में हम लोग लगातार लेख या मीडिया के माध्यम से सुझाव देते रहे हैं। देश में इनकी काफ़ी चर्चा भी हुई है। खासकर वर्ष 1980 के बाद चुनाव आयोग की भूमिका पर निरंतर देश में चर्चा चलती रही है। हमारे देश में एक हिस्सा ऐसा है जो यह मानता है कि टी. एन. शेषन सबसे उपयुक्त और योग्य चुनाव आयुक्त थे, जिन्होंने चुनाव प्रणाली को बहुत हद तक सुधारा और यह उनका व्यक्तिगत प्रयास था, जिससे चुनाव प्रणाली को सुधारने में उन्होंने सफलता हासिल की। हालांकि मैं ऐसा कहने का कोई तार्किक कारण नहीं देखता हूं। उनके कार्यकाल में ही चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचीका दायर की थी जिसमें चुनाव आयोग के चुनाव कराने के लिये अधिकारों के प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से निर्णय की अपेक्षा की थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को यह अधिकार दिया था कि उनके पास चुनाव को निष्पक्ष कराने के लिये सारे अधिकार हैं। मुझे स्मरण है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में लिखा था कि चुनाव आयोग को निष्पक्ष चुनाव कराने के लिये सारे अधिकार हैं। इस फैसले का इस्तेमाल कर कुछ सुधार करने का प्रयास चुनाव आयुक्त के रूप में श्री शेषन साहब ने किया था, परंतु वह सुधार कोई बहुत उल्लेखनीय परिणाम नहीं दे सका। किसी बड़े पद की कुर्सी पर बैठकर वहां से चीजों को देखना बहुत वस्तु परक नहीं होता। यही स्थिति श्री शेषन के साथ हुयी थी। उन्होंने अपने पद की धमक तो पैदा की, अधिकारियों को धमकाया भी, परंतु चुनाव प्रणाली के सुधार के लिये कुछ विशेष नहीं कर पाये। शीर्ष पर्दों पर बैठकर की जाने वाली बातें और वास्तविक जमीन पर कितना अंतर होता है यह तब स्पष्ट हो गया जब श्री सेशन चुनाव आयुक्त के पद से सेवानिवृत होने के बाद खुद लोकसभा का चुनाव लड़े और न केवल बुरी तरह पराजित हुये बल्कि जमानत भी नहीं बचा पाये। शायद तब उनको महसूस हुआ होगा कि देश की व्यवस्था के नीचे के हालात और उन्हें ऊपर से बैठकर देखने में कितना फ र्क है। चुनाव आयोग को देश में निष्पक्ष, सत्ता मुक्त, धर्म और जाति के दवाब से मुक्त और धन से मुक्त चुनाव कराना है तो इसके लिये एक व्यापक दृष्टि की आवश्यकता है। आज हमारे देश के चुनाव धन तंत्र, धर्म तंत्र, बलतंत्र और सत्ता तंत्र इन चारों से प्रभावित है। और इसलिये चुनाव दिखाने को भले ही निष्पक्ष लगे परंतु वे कहीं ना कहीं दूषित होते हैं। इन चारों में से कोई ना कोई बुराई उन्हें प्रभावित करती है। मैं मानता हूं कि यह अकेले चुनाव आयोग को संभव नहीं है, जब तक की सत्ता और जनता भी उनके साथ ना हो। और जब सत्ता आमजन को गुमराह कर या किसी अन्य प्रकार से प्रभावित कर बनती है तो उससे यह उम्मीद करना कि वह निष्पक्ष चुनाव आयोग चाहेगा व्यवहारिक नहीं है । इसका प्रमाण हाल ही में सामने आया जब सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में चुनाव आयुक्त के नियुक्ति को लेकर एक फैसला दिया था जिसमें त्री सदस्य चयन समिति बनना थी। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और भारत के मुख्य न्यायाधीश। 1 इन तीन लोगों की कमेटी के द्वारा चुनाव आयोग का चयन होना था परंतु भारत सरकार ने संसद में कानून पारित कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लगभग निरस्त कर दिया। और भारत के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को उसमें शामिल नहीं रहने दिया। यानी, परिणाम यह है कि अब भारत सरकार के हाथ में ही यह पूर्ण अधिकार है कि वह अपने मन का चुनाव आयोग बनाये और जब सरकार चुनाव आयोग अपने निर्वाध अधिकारों के तहत बनायेगी तो फि र चुनाव आयोग का सत्ता तंत्र से मुक्त होना कैसे संभव है? आज हम देख रहे हैं कि पैसे का दुरुपयोग चुनाव में भरपूर होता है। चुनाव आयोग के पास इसके लिये कोई ठोस कार्यक्रम या सोच नजर नहीं आती। चुनाव आयोग ने लगातार विधानसभा और लोकसभा के चुनाव की खर्च सीमा को बढ़ाया है। चुनाव के खर्च की सीमा को बढ़ाना क्या समस्या का हल है। आजकल संसद के चुनाव के खर्च की सीमा लगभग 70 लाख है और विधानसभाओं की भी 30 से 40 लाख है। क्या देश का कोई गरीब आदमी या गरीब प्रत्याशी 70 लाख रुपए खर्च करके लोकसभा और 40 लाख रुपए खर्च करके विधानसभा का चुनाव लड़ सकता है ? कहने को भले है कि देश में वोट का सभी को समान अधिकार हो यानी एक व्यक्ति एक वोट है परंतु चुनाव लडऩे का समान अधिकार नहीं है। गरीब आदमी को या ईमानदार प्रत्याशी को तो एक प्रकार से चुनाव की प्रक्रिया से बाहर ही कर दिया गया है और अगर उसे चुनाव लडऩा है तो फि र उसे धनपतियों के पैसों पर या राजनीतिक दलों के भ्रष्ट चंदे पर निर्भर होना होगा। जिसका अर्थ होगा कि या तो पूंजीपतियों की गुलामी या फि र दलीय गुलामी। यह एक प्रकार से देश में, दलों में, आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो रहा है। निर्वाचित सांसद या विधायक जो दल के, नोट दल के वोट और दल के टिकट पर निर्भर करते हैं उनकी स्वतंत्रता चेतना समाप्त हो जाती है। उन्हें अपना राजनैतिक भविष्य, अपने परिवार का भविष्य, अनुशासन के नाम पर आंख- मुंह बंद कर शीर्ष नेतृत्व के समर्थन में दिखता है। वह आगामी चुनाव में हिस्सेदारी के लिये या सत्ता में साझेदारी के लिये अपनी आत्मा को गिरवी रख देते हैं तथा दलीय नेतृत्व के आज्ञाकारी गुलाम जैसे बन जाते हैं। यह एक प्रकार से बंधुआ मजदूर जैसे हो जाते हैं। इस दलीय तानाशाही को आजकल हाई कमांड और शीर्ष नेतृत्व को ‘सुप्रीमो’ कहा जाता है। क्या यह ‘शब्द’ ‘लोकतांत्रिक शब्द कोष’ का है ? यह तो माफि या जगत का ‘जुमला’ है। इन बीमारियों से मुक्ति पाने के लिये भी चुनाव आयोग को सोचना चाहिये। खर्च की सीमा बढ़ाने के बजाय चुनाव आयोग को यह प्रयास करना चाहिये कि जितने भी प्रत्याशी हों उन सभी को समानता से चुनाव लडऩे का अधिकार हो और इसके लिये यह आवश्यक होगा कि प्रत्याशियों का चुनाव खर्च सारा चुनाव आयोग के द्वारा हो। चुनाव की प्रक्रिया शुरू होते ही प्रत्याशियों के निजी प्रचार के सारे काम समाप्त हो जाये। चुनाव आयोग प्रत्याशियों को मात्र दो-दो गाडिय़ां उपलब्ध कराये जिन पर वह अपना जनसंपर्क करें। परंतु चुनाव की अवधि में एंबुलेंस, सामूहिक यातायात साधन जैसे वाहन छोड़ कर शेष निजी वाहनों पर चलने पर रोक लगा दी जाये। अगर 10-15 दिन के लिये यह रोक हो जायेगी तो इससे कोई बड़ा अंतर पडऩे वाला नहीं है, परंतु एक बहुत बड़ा भ्रष्टाचार का कारण रुक जायेगा। इसी प्रकार से पार्टियों के घोषणा पत्र, प्रत्याशियों के घोषणा पत्र, वचन पत्र या जीवन परिचय यह भी चुनाव आयोग के तंत्र के माध्यम से बंटवाये जा सकते हैं। सामूहिक सभाएं हो सकती हैं जिनमें सभी दलों के लोग अगर सभाओं में कुछ कहना चाहते हैं तो एक ही चुनाव आयोग के मंच से निश्चित समय में कह सकते हैं। 2- मीडिया में भी सबके लिये समान अधिकार मिलना चाहिये ताकि सब की बात पहुंच सके। अगर यह होगा तो फिर चुनाव में धन-तंत्र का प्रभाव काफ ी हद तक समाप्त हो सकता है। हमारे देश में जाति और धर्म भी चुनाव को प्रभावित करते हैं। इसके बारे में भी कुछ नियम बनाये जा सकते हैं, क्या कोई ऐसा आदर्श समय आ सकता है या लाया जा सकता है और क्या चुनाव आयोग इसमें कोई भूमिका अदा कर सकता है। जिस जाति की बहुलता हो उस जाती का प्रत्याशी वहां से ना बन सके। डॉक्टर हरि सिंह गौर ने एक सुझाव दिया था, जो बहुत ही माकूल है। उन्होंने कहा था कि जीतने वाले प्रत्याशी के लिये जब तक एक निश्चित मात्रा में दूसरे धर्म वालों के वोट न मिले तब तक जीता न माना जाये। उदाहरण के लिये अगर यह नियम बन जाये कि हिंदू प्रत्याशी के लिए न्यूनतम अन्य धर्म वाले लोगों के जैसे मुस्लिम सिख ईसाई आदि हैं, कुछ प्रतिशत मत मिले तभी वह जीता माना जाये। इसी प्रकार से यह नियम सभी धर्म वालों पर उनके बहुमत या अधिकांश जातीय मतों के इलाकों में लागू हो। इसी प्रकार के नियम जाति के लिये भी बनाये जा सकते हैं। चुनाव आयोग ने पिछले दिनों जो नियम बनाये हैं वह बहुत अव्यवहारिक है और केवल चुनाव का खर्च बढ़ाने वाले हैं। पिछले दिनों चुनाव आयोग ने चुनाव के नामांकन का प्रोफ ार्मा इतना बड़ा बनाया है और इतना उलझा हुआ है कि उसे भरने के लिये प्रत्याशी समर्थ नहीं होते। आजकल नामांकन फ ार्म भरवाने के लिये वकीलों का सहयोग लेना पड़ता है और 5000 से लेकर 25 हजार रुपये और कहीं-कहीं तो लाख रुपए तक वकील नामांकन करने के पैसे ले रहे हैं। इसी प्रकार चुनाव के हिसाब- किताब को रखना, रजिस्टर के साथ चेक करना, यह खानापूर्ति भी एक तकनीकी काम है जिसके लिये आजकल विशेषज्ञ कर्मचारी लगाये जाते हैं। यानि लाखों रुपए तो केवल इसी तकनीकी पर प्रत्याशियों को खर्च करना पड़ रहा है । सामान्य प्रत्याशी के लिये यह बड़ा संकट है और और इन खर्चों को करना भी उनके बस में नहीं है। इसी प्रकार चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के नाम पर यह नियम बनाया है कि हर प्रत्याशी अपने बारे में चल रहे मुकदमे और सजा आदि की जानकारी देगा। उसे यह जानकारी प्रत्याशी और प्रत्याशी को टिकट देने वाला दल,कम से कम दो प्रमुख स्थानीय अखबारों में और दो मीडिया चैनलों में प्रकाशित करायेंगे। आजकल अखबारों में इनको छपाना या टीवी चैनल पर इनको दिखाना कितना महंगा काम है। कोई ईमानदार पार्टी इसके लिये कहां से पैसा लायेगी। चुनाव आयोग यह कर सकता था की प्रत्याशियों से प्राप्त जानकारी को अपनी ओर से मीडिया में दे और और मीडिया समूहों को छापने को आदेश दें। यह तो उचित था परंतु चुनाव आयोग ने जो रास्ता निकाला है वह एक प्रकार से ईमानदार प्रत्याशियों को चुनाव से बाहर करने वाला है। मतदान के दिन पोलिंग एजेंट ,फि र काउंटिंग एजेंट और और मतदान के दिन लगाये जाने वाले टेंट आदि का खर्च लाखों- करोड़ तक होता है। क्या चुनाव आयोग इन पर रोक नहीं लगा सकता? क्या चुनाव आयोग मतदान एजेंट, पोलिंग एजेंट और मतगणना के एजेंट को अपनी ओर से खाना नहीं खिला सकता है? यह सारे काम चुनाव आयोग आसानी से कर सकता है परंतु चुनाव आयोग की भूमिका अलग प्रकार की है। दरअसल, हो यह रहा है कि चुनाव आयोग खर्चे पर ऐसे नियम बना रहा है, जिससे देश में दो दलीय प्रणाली बन जाये और देश में धीरे-धीरे छोटे दलों, वैचारिक दलों और ईमानदार प्रत्याशियों के लिये कोई चुनावी भूमिका ही न बचे। यह एक प्रकार से भारतीय लोकतंत्र के लिये जनतंत्र से हटकर कॉर्पोरेट लोकतंत्र में बदलने का उपक्रम है। चुनाव आयोग ने अपनी भूमिका में भी सभी दलों की राय लेना या सबको बराबर का महत्व देना के सिद्धांत को नहीं अपनाया है। कोई चर्चा अगर चुनाव आयोग करता भी है तो केवल मान्यता प्राप्त दलों को ही सहभागी बनाता है। 3- क्या हिंदुस्तान के सारे बौद्धिक विचारों का ठेका या सुधार का ठेका मात्र 40 से 50 फ ीसदी मतदाताओं के प्रतिनिधि जमातों के पास ही है ? क्या बकाया 50 -60 फ ीसदी मतदाताओं का कोई विचार नहीं है? क्या उनकी सोच का कोई महत्व नहीं है? परंतु चुनाव आयोग ने अपने आप को सीमित हिस्सों में समेट लिया है। एक खास राजनैतिक तबके में समेट लिया है। चुनाव आयोग कोई सक्षम कार्यवाही भी नहीं करता। अक्सर ऐसा होता है कि, आचार संहिता लागू होने के बाद बड़ी पार्र्टियां, सरकार विशेषत: बड़े दल और ताकतवर प्रत्याशी अपनी चुनावी जरूरत के हिसाब से घोषणाएं कर देते हैं और उन्हें चुनाव आयोग या तो नजरंदाज कर देता है परंतु उन्हें चुनाव आयोग दंडित नहीं करता। कभी-कभी नोटिस भी दे देता है परंतु कोई कार्यवाही नहीं करता। क्या चुनाव आयोग को आचार संहिता के उल्लंघन करने वाले या प्रत्याशियों के ऊपर प्रतिबंधात्मक कार्यवाही नहीं करनी चाहिये? क्या उनका रजिस्ट्रेशन या मान्यता समाप्त नहीं करनी चाहिये? परंतु चुनाव आयोग वहां पर लगभग मूकदर्शक जैसा बन जाता है। इसी प्रकार से चुनाव आयोग अन्य चुनावी अपराधों के लिये भी समान व्यवहार नहीं करता है। जो लोग अपने भाषणों में घृणा के शब्दों का इस्तेमाल करते हैं उन्हें भी चेतावनी दे दी जाती है परंतु उनकी योग्यता को समाप्त नहीं करता। उन पर रोक नहीं लगायी जाती। ऐसे और भी कई कदम हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि चुनाव आयोग या तो निष्पक्षता चाहता नहीं है या फिर व्यवस्था से टकराने की हिम्मत नहीं करता है। पार्टियां घोषणा पत्र जारी करती हैं परंतु लागू करने की जवाबदारी या बाध्यता उनकी नहीं होती। चुनाव आयोग को यह करना चाहिये कि वह सभी दलों या प्रत्याशियों का घोषणा पत्र, रजिस्टर्ड पंजीकृत कराये, जिसमें समयबद्ध सीमा के अंदर उनके घोषित कार्यक्रम को पूरा करने का वचन हो और अगर निर्धारित अवधि में अपना वचन पूरा नहीं कर पाते हैं तो उनका चुनाव रद्द किया जाये। उनकी मान्यता रद्द कर दी जाये और उन दलों का पंजीकरण रद्द कर दिया जाये तथा ऐसे प्रत्याशियों के ऊपर भी चुनाव लडऩे की रोक लगायी जाये। आज एक प्रत्याशी कई- कई जगह से लोकसभा या विधान सभा का चुनाव लड़ते हैं। क्या इस पर रोक नहीं लगायी जानी चाहिये ? प्रत्याशी जब कई जगह से लड़ता है और वह अगर दो स्थान से जीत जाता है तो दो जगह से में से एक जगह से त्याग पत्र दे देता है। वहां पर पुन: चुनाव होता है । ऐसे प्रत्याशियों के ऊपर रोक लगनी चाहिये। होना यह चाहिये कि चुनाव आयोग यह नियम बनाये की व्यक्ति किसी एक ही जगह से चुनाव का प्रत्याशी हो सकता है। इसी प्रकार पार्टियों का आचरण हम देखते हैं कि वह एक व्यक्ति को कई -कई लोकसभा क्षेत्रों से प्रत्याशी बनाते हैं और जीतने के बाद फि र इस्तीफ ा दिलाकर विधानसभा में लड़ा देते हैं। जो व्यक्ति विधानसभा में है उसे लोकसभा में लड़ा देते हैं और फि र जीतने के बाद उस क्षेत्र में पुन: चुनाव होता है। चुनाव आयोग को नियम बनाना चाहिये कि जो व्यक्ति जिस स्थान से चुनाव लड़ता है अगर वह लोकसभा का लड़ता है तो लोकसभा के लिये, विधानसभा का लड़ता है तो विधानसभा के लिये, उसे पूरी अवधि तक उसी में रहना होगा। यानि विधायक चुना जाये तो वह 5 साल विधायक रहे और सांसद चुना जाये तो 5 साल सांसद रहे। यह भी फैसला होना चाहिये। दल- बदल के बारे में भी कोई ठोस निर्णय कर नीति बनायी जानी चाहिये। यह भी फैसला हो कि चुनाव के घोषणा के 6 माह पूर्व से प्रतिबंध लग जाये और कोई व्यक्ति दल बदल ना कर सके। अगर कोई व्यक्ति 6 माह के भीतर दल बदल करता है तो उसे चुनाव में लडऩे की पात्रता नहीं हो। यानि दल बदल करने वाले को कम से कम 5 साल इंतजार करना पड़े। 4-चुनाव चिन्ह आवंटन के भी जो नये नियम चुनाव आयोग ने बनाये हैं वह त्रृटिपूर्ण है और एक प्रकार से झूठ बोलने वालों व गलत जानकारी देने वालों के लिये सुविधा देते हैं। या फि र किसी दल या व्यक्ति के लिये झूठ बोलने के लिये बाध्य करते हैं। जैसे कि अगर कोई दल या व्यक्ति यदि लिखकर देगा कि वह पांच फ ीसदी कुल सदस्य संख्या के प्रत्याशी खड़ा करेगा तो उसे एक चुनाव चिन्ह मिलेगा। परिणाम यह होता है कि लोग दल बनाते हैं, झूठ वचन देते हैं, या फिर वचन देकर एक चुनाव चिन्ह ले लेते हैं और उसका दुरुपयोग करते हैं। होना यह चाहिये कि हर पंजीकृत दल के लिये जो मुक्त चुनाव चिन्ह है, उनमें से कोई एक चुनाव चिन्ह लेने का अधिकार हो। जितने प्रत्याशियों को लड़ाने की क्षमता हो उतने प्रत्याशियों को समान चिन्ह मिले। चुनाव आयोग को इन सारे सवालों पर सोचना होगा और एक निष्पक्ष चुनाव आयोग कैसे गठित हो, चुनाव निष्पक्ष जाति,धन,धर्म और दबाव से कैसे मुक्त हो, इससे संबंधित उपाय भी नियमों में सुधार कर करना होगा। चुनाव आयोग को मतदान के लिये भी कुछ और सुविधाएं प्रदान करनी चाहिये। आजकल ऑनलाइन का जमाना है। क्या चुनाव आयोग यह फैसला नहीं कर सकता कि व्यक्ति अपने घर से भी ऑनलाइन वोट कर सके और उसके किये हुये मतदान की पर्ची चुनाव आयोग के पास सुरक्षित रहे? ताकि कभी उसका मिलान करना जरूरी हो तो किया जा सके। इससे भी मतदान का प्रतिशत बढ़ेगा और बहुत सारे लोग जो भीड़ की वजह से मतदान करने नहीं जा पाते या नहीं जाना चाहते हैं वह भी अपना मत दे सकेंगे। हालाकि इन सुधारों पर अमल करना आसान नहीं है। देश के जनमत को भी इन सवालों के साथ खड़ा होना होगा। सरकार अकेले सुधार नहीं कर पायेगी, जब तक की जनता का दबाव नहीं होगा। डॅा. लोहिया कहते थे कि संसद तब तक कोई अच्छा कानून पारित नहीं करती जब तक कि जनता का दवाब न हो।

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