वोट बनाम नोट : जनता की सजगता से हारेगा धनबल

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दिल्ली। लोकसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग और अन्य एजेंसियों की सक्रियता से बरामद करीब पौने पांच हजार करोड़ रुपये इस बात की ओर संकेत है कि जनतंत्र के सामने धनबल की चुनौती कितनी बड़ी हो चुकी है। विडंबना देखिये कि स्वतंत्र भारत के आम चुनावों के क्रम में यह अब तक की सबसे बड़ी नकदी की बरामदगी है। चुनाव आयोग का दावा है कि हर रोज सौ करोड़ रुपये की बरामदगी होती रही है। निश्चय ही ये हालात भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिये अच्छे संकेत नहीं हैं। आज जनप्रतिनिधि संस्थाओं में करोड़पति माननीयों की लगातार बढ़ती संख्या बताती है कि धनतंत्र का दायरा लोकतंत्र में लगातार किस हद तक बढ़ता जा रहा है। इस संकट का बढऩा बताता है कि हमारे राजनीतिक दलों की तरफ से इस दिशा में कोई ईमानदार पहल नहीं हुई है। नि: संदेह, उस दिन चुनावों में धनबल की भूमिका गौण हो जायेगी, जिस दिन राजनीतिक दल निहित स्वार्थों को छोड़कर इस दिशा में ईमानदार कोशिश करेंगे।

21वीं सदी में भी यदि भारतीय लोकतंत्र में आम चुनावों के दौरान धनबल, बाहुबल, अफवाह तंत्र की दखल तथा आचार-संहिता के उल्लंघन का सिलसिला जारी है तो इसका मतलब है कि हम अभी तक परिपक्व व जिम्मेदार नागरिक तैयार नहीं कर पाये। सवाल यहां धनबल का ही नहीं है, छापों के दौरान बड़े पैमाने पर नशीले पदार्थों की बरामदगी भी एक बड़ी चिंता का विषय होना चाहिये। चुनाव आयोग की तरफ से बरामदगी के जारी आंकड़े बताते हैं कि इसमें 45 फीसदी नशीले पदार्थों की बरामदगी है। ऐसे में इस साल मतदान की प्रक्रिया से जुड़ रहे 1.8 करोड़ नये मतदाताओं को हमें लोकतंत्र की मौजूदा विसंगतियों से दूर रखना है। यदि हम ऐसा कर पाने में सफल होते हैं, तो तभी हम स्वस्थ लोकतंत्र की बुनियाद रख पायेंगे। ऐसे में हमारी प्राथमिकता हो कि हम नोटों की गड्डी की बजाय वोट की पवित्रता को अपनी प्राथमिकता बनायें। यदि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पारदर्शी हो तो देश में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव का मार्ग प्रशस्त होता है। सही मायनों में निष्पक्ष चुनाव ही लोकतंत्र की आधारशिला है। बहरहाल, चुनाव आयोग की हालिया सख्ती और विसंगतियों पर तुरंत कार्रवाई व गाहे-बगाहे शीर्ष अदालत द्वारा चुनाव सुधारों के लिये रचनात्मक पहल ने लोकतंत्र के बेहतर भविष्य के प्रति उम्मीद जगाई है। नि: संदेह चुनाव प्रक्रिया कदाचार से मुक्त होनी ही चाहिये। यह आयोग के साथ ही देश के जागरूक मतदाताओं की जिम्मेदारी भी है। इस बात में दो राय नहीं हो सकती है कि किसी भी चुनाव में प्रत्याशियों के लिए चुनावी प्रतियोगिता का मंच समतल ही हो। और साथ ही किसी तरह के भेदभाव से मुक्त हो। नि: संदेह, हमारी मौजूदा कानून व्यवस्था में राजनेताओं के भ्रष्टाचार व आर्थिक अनियमितताओं पर रोक लगाने में जो खामियां हैं, उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिये। दरअसल, चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिये चुनाव आयोग का सरकार व दल विशेष के प्रभाव से मुक्त होना भी बेहद जरूरी है ताकि वह किसी भी राजनीतिक दल के खिलाफ निष्पक्ष कार्रवाई कर सके। इसमें दो राय नहीं है कि चुनावी प्रक्रिया में किसी भी तरह के भ्रष्टाचार से निपटने के लिये लोकतांत्रिक संस्थानों की स्वतंत्रता, स्वायत्तता, पारदर्शिता, जवाबदेही तथा नागरिकों के जुड़ाव को बढ़ावा देना प्राथमिकता होनी चाहिये। दरअसल, अप्रिय स्थिति से बचने के लिये जहां नियमों व कानूनों को प्रभावी व व्यापक बनाने की जरूरत है, वहीं आधुनिक प्रौद्योगिकी के जरिये हम चुनाव प्रक्रिया की कार्यक्षमता बढ़ाने तथा पक्षपात के आक्षेपों से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वहीं चुनावी प्रक्रिया में गलत तरीकों से पहुंचने वाले पैसे पर नियंत्रण के लिये आवश्यक है कि राजनीतिक व्यय पर डिजिटल उपकरणों के जरिये सख्त निगाह रखी जाये। हमें अपनी चुनावी व्यवस्था में नियामक ढांचे को मजबूत करके स्वतंत्र व पारदर्शी लोकतंत्र की राह मजबूत करनी चाहिये।

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