मायावती-नीतीश मुलाकात की आशंका से अखिलेश बेचैन !

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नवेद शिकोह
लखनऊ

लोकसभा चुनाव की सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश को मानकर इंडिया गठबंधन के शीर्ष नेता बसपा का साथ पाने की जद्दोजहद में लगें हैं। ये कोशिश सफल हो गई तो समाजवादी पार्टी का यूपी में लीडिंग पावर कमजोर पड़ सकता है। पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव का इन आशंकाओं से असहज होना स्वाभाविक है। कांग्रेस और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चाहत है कि बसपा उनके गठबंधन का हिस्सा बने, जिससे ना सिर्फ यूपी की लड़ाई आसान हो बल्कि देशभर के दलित वोट बैंक का विश्वास जीतने में सफलता मिले। गठबंधन के शीर्ष पदस्थ सूत्रों का कहना है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बसपा सुप्रीमो से मुलाकात के लिए लखनऊ आ सकते हैं। ये बात अलग है कि मायावती कई बार दोहरा चुकी हैं कि बसपा अकेले बूते पर लोकसभा चुनाव लड़ेगी। लेकिन कुछ संकेतों ने एक बार फिर इंडिया में बसपा के शामिल होने की संभावनाओं को बल दे दिया है। यूपी की घोसी विधानसभा सीट के उप चुनाव में बसपा का ना लड़ना और यूपी कांग्रेस के पूर्व बसपाई पदाधिकारियों को साइड लाइन किए जाना जैसी सच्चाइयां नई संभावनाओं को जन्म दे रही हैं। कहे़ं कुछ भी लेकिन इस बात को मायावती भी समझती होंगी कि यूपी में अकेले बूते पर चुनाव लड़ना कितना घातक होगा। और दूसरे विकल्प एनडीए का हिस्सा बनने पर बसपा को उतनी सीटें और वैल्यू नहीं मिल सकेगी जितनी अहमियत और सीटें बहन जी चाहती हैं।

इन स्थितियों -परिस्थितियों को देखकर ही नीतीश कुमार और कांग्रेस के शीर्ष नेता मायावती को मनाने और उन्हें अपने गठबंधन में लाने की ज़िद में लगे हैं। यदि इस गुणा-भाग में कामयाबी हासिल हो गई तो यूपी में सपा की वैल्यू कम हो जाएगी। बसपा अपनी शर्तों पर ही आएंगी और सपा से कम सीटों पर राज़ी नहीं होंगी। ऐसे में सपा के हिस्से में तीस लोकसभा सीटें सीटें भी आ जाएं तो बड़ी बात है। भविष्य की इन आशंकाओं और संकेतों को देखकर ही अखिलेश यादव असहज हैं। बताया जात है कि ऐसे हालात में वो इंडिया गठबंधन से अलग होकर अकेले बूते पर चुनाव लड़ने के प्लान बी की स्थितियों का आंकलन कर रहे हैं। हांलांकि उन्हें भी ये भय है कि यदि वो अकेले चुनाव लड़ेंगे तो उनका सबसे बड़ा मुस्लिम वोट बैंक उनके हाथ से निकल जाएगा। इस कड़वी आशंका में कितनी सच्चाई है इसका आंकलन करने के लिए अभी हाल ही में अखिलेश यादव ने लखनऊ में मुस्लिम बुद्धिजीवियों को दावत देकर जानना चाहा कि मुस्लिम समाज का उनकी पार्टी को लेकर क्या रुझान है ! सपा सूत्रों की माने तो मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने बड़ा नकारात्मक फीडबैक दिया। सपा मुखिया  को बताया गया कि यूपी का मुस्लिम समाज परेशान और भयभीत है। गरीबी, मंहगाई,अशिक्षा और बेरोजगारी तो झेलता ही है और अब बुल्डोजर और मुकदमों के डर के बीच चाहता है कि सपा उसकी तकलीफों के खिलाफ आवाज़ उठाए। लेकिन अब सपा इन अपेक्षाओं में पूरी तरह नहीं खरी उतर रही है। भाजपा को सत्ता से बेदखल करने की चाहत रखने वाली आवाम चाहती है कि कांग्रेस और उसके गठबंधन इंडिया को यूपी में सपा ताकत दे। सभी धर्मनिरपेक्ष दल एकजुट हों ताकि वोटों का बिखराव नहीं हो। गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में मुस्लिम समाज का रुझान कांग्रेस की तरफ होता है। इधर कांग्रेस नेता राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लगातार मुखर रहे। उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा में जमीनी संघर्ष किया। नतीजतन कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में भाजपा को हराकर जीत हासिल करने की सफलता हासिल की। इन बातों के मद्देनजर यूपी के मुस्लिम समाज का भी कांग्रेस के प्रति रुझान बढ़ा है। ऐसा फीडबैक पाकर अखिलेश यादव कांग्रेस और उसके इंडिया गठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ने की हिमाकत तो नहीं करें पर अब उनके सामने एकतरफ कुआं है और एक तरफ खाई।
समाजवादी पार्टी मौजूद समय में यूपी का सबसे बड़ा विपक्षी दल है। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को दो और बसपा को मात्र एक सीट ही हासिल हो सकी थी। अकेले सपा और उसके गठबंधन के घटक दलों ने भाजपा को चुनौती दी थी। ऐसे में यूपी के विपक्षी खेमें में सपा अपना एकक्षत्र राज मान रही थी। अखिलेश मान कर चल रहे थे कि यूपी में कांग्रेस की स्थितियों को देखकर उसपर दबाव बनाए रहेंगे। और इंडिया गंठबंधन में शामिल होकर भी कांग्रेस, रालोद और अन्य को पंद्रह से बीस सीटें देकर सपा तकरीबन साठ से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ेगी। जबकि रालोद पहले ही सपा से दस सीटें मांगने का दबाव बना रही है। और अब यदि मायावती को विपक्षी गठबंधन में लाने पर राजी कर लिया जाता है तो बसपा सपा से कम सीटों पर राजी नहीं होगी। ये सच भी है कि भले ही बसपा पिछले विधानसभा चुनाव में लगभग साफ हो गई हो और निकाय  चुनाव में मेयर की अपनी  दो सीटें भी गवा बैठी हो पर  पिछले लोकसभा में बसपा ने सपा से दो गुना अधिक यानी दस सीटें जीती थीं। आकड़ों पर गौर कीजिए तो अधिकतर लोकसभा चुनावों में सपा की अपेक्षा बसपा का वोट प्रतिशत भी अधिक रहा है। भले ही दलित समाज का विश्वास भाजपा से जु़ड़ गया हो पर आज भी करीब आधा दलित वोटबैंक खासकर जाटव समाज बसपा के साथ है। यही कारण है कि नीतीश कुमार और कांग्रेस बसपा को साथ लाकर अपने गठबंधन का विस्तार करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। जिससे राष्ट्रीय स्तर पर लाभ हो और यूपी की चुनौती भी कुछ आसान हो सके। मायावती के अकेले लड़ने के एलानिया फैसलों को देखकर इस कोशिश में सफलता मिलना भले ही मुश्किल है लेकिन मान लीजिए यदि मायावती नीतीश की गुजारिश मान भी लेंगी तो अपनी शर्ते जरूर रखेंगी। उनकी शर्तें सपा की हैसियत को कमजोर करेंगी।
 तीन-चार हिस्सों में बंटी सीटों में सपा के हिस्से में तीस से अधिक सीटें शायद ही हासिल हो पाएं। ऐसे में सपा का वर्चस्व और यहां के विपक्षी खेमे में उसके एकक्षत्र राज की ताकत फीकी पड़ जाएगी। इन आशंकाओं, संभावनाओं और संकेतों को देखकर सपा अध्यक्ष अखिलेश पशोपेश में पड़े हैं कि वो करें तो क्या करें ! वो खुद को कांग्रेस और नीतीश कुमार के राजनीतिक चक्र में फंसा महसूस कर रहे हैं। अखिलेश यादव का अकेले चुनाव लड़ने का फैसला घातक है और दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन के शिल्पकार सपा को सब धान एक पसेरी तौलना चाहते हैं।

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