जन्म दिवस पर विशेष- ‘संवेदनशील’ एवं ‘कर्मयोगी’ व्यक्तित्व पं. वृंदावन मिश्र

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दिव्या श्री.

लेखिका,संपादक पं. वृंदावन मिश्र की पोती हैं

लखनऊ। आज के परिवेश में जहां हर व्यक्ति ‘द्वेष’ व ‘स्वार्थ’ में लिप्त है…। शिद्धांथों से समझौता कर दिशाहीन मंजिल की ओर बढ़ रहा है…लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने कभी जिंदगी में ‘समझौता’ नहीं किया और देश के लिये ‘मर-मिटने’ का संकल्प लेकर आगे की ओर बढ़ते रहें। हम एक ऐसे व्यक्तित्व की जीवन कथा बता रहे हैं,जिन्होंने समकालीन, विपरित परिस्थितियों में भी अपने ‘सिद्धांत’ व ‘उददेश्य’ से समझौता ना कर एक ‘संवेदनशील’ व ‘कर्मयोगी व्यक्तित्व’ की भूमिका निभाते हुये अगली पीढ़ी के लिये प्रेरणास्त्रोत बनें। हमें गर्व की अनुभूति है कि हम उन्हीं को प्रेरणास्त्रोत मानकर ,उनके सिखाये मार्ग पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। पं. वृंदावन मिश्र का जन्म 17 अप्रैल 1894 को बलिया जिले के शिवपुर दीयर के मिश्र चक्र में पं. भोलानाथ मिश्र के संतान के रुप में हुआ। जमींदार परिवार की सारी सुविधायें उन्हें उपलब्ध थी परन्तु वैभव का अहंकार उन्हें तनिक भी नहीं था। स्व.मिश्र के जीवन में अनेको छोटी-बड़ी घटनाएं घटित हुयीं जो उनके व्यक्तित्व की झांकी देती है।

श्री मिश्र बलिया से हाई स्कूल की परीक्षा पास कर कलकत्ता चले गये। कलकत्ता से इंटरमीडिएट परीक्षा उच्च कोटी से प्राप्त कर चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई शुरु कर दी। दो वर्ष तक शिक्षा नियमित चलती रही परन्तु नियति के चक्र का निर्देश कुछ और ही था। आजादी का आंदोलन आगे बढ़ रहा था। कलकत्ता में लोकमान्य तिलक का नारा स्वतंत्रता हमारा जन्मशिद्ध अधिकार है, ने पं.वृंदावन मिश्र को आंदोलित कर दिया। बीज तो पहले से ही था,क्योंकि पं. मिश्र का परिवार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की हर संभव मदद करने के आरोप पर पहले ही ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन बन चुका था, जिसमें इस परिवार की जमींदारी का एक भाग यानि 800 बीघा जमीन 1857 के बाद ही ब्रिटिश सरकार द्वारा डुमराव के राजा को दे दी गयी थी।

पं.मिश्र आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। इसी वजह से ब्रिटिश अदालत ने वर्ष 1921 में ढाई वर्ष जेल की सजा सुना दी। वर्ष 1929 में लाहौर कांग्रेस में पूर्ण आजादी का लक्ष्य घोषित किया गया और 26 जनवरी 1930 को पूरे भारत में पूर्ण आजादी करने के लक्ष्य की घोषणा की गयी। महात्मा गांधी के दांड़ी यात्रा व नमक आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेने क कारण श्री मिश्र को गिरफ्तार कर लिया गया था। ब्रिटिश मजिस्ट्रेट ने उन्हें दो वर्ष की सजा सुना दी। इन्हीं जेल यात्राओं के कारण वर्ष 1942 से 1946 के बीच भारत छोड़ो आंदोलन में पं. मिश्र भूमिगत रहते हुये अपना योगदान देते रहें। वर्ष 1948 के बाद पं. मिश्र 10 वर्ष तक डिस्ट्रीक बोर्ड के निर्विरोध सदस्य रहें। डिस्ट्रीक बोर्ड के शिक्षा समिति के अध्यक्ष होने के नाते उन्होंने अनगिनत प्राइमरी एवं जूनियर हाई स्कूल खुलवाये। सैंकड़ों युवकों को शिक्षक के रुप में नौकरी दिलवायी।

उस दौर में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को उत्तर प्रदेश सरकार ने नैनीताल के तराई इलाके में बड़े-बड़े भूखण्ड आवंटित किये। पं. मिश्र को भी 30 एकड़ जमीन आवंटित की गयी लेकिन उन्होंने जमीन लेने से साफ तौर पर इंकार कर दिया।

जानकारों को मालूम होगा कि उत्तर प्रदेश में स्व.चरण सिंह के नेतृत्व में राजस्व मंत्री रहते हुये भूमिधर कानून लागू हुआ था। गांव में ऐसे 70 प्रतिशत भूमिहीन किसान थें जो सिकमी के रुप में खेती करते थे। भूमिधर कानून लागू होने के बाद से सारे भूमिहीन जो लगान देकर खेती करते थे, भूमिधर हो गये या मालिक बन गये। उस स्थिति में काश्तकारों एवं भूमिहीन किसानों के बीच संघर्ष तेज हो गया था। हजारों दीवानी एवं फौजदारी के मुकदमें शुरु हो गये। फलत: काश्तकारों के एक वर्ग ने द्वेषवश अनेकों फौजदारी के मुकदमें श्री मिश्र के खिलाफ चलाये। श्री मिश्र कभी अदालत नहीं गये। जैसे ही मजिस्ट्रेट ने अपराधियों की लिस्ट में श्री मिश्र का नाम देखा,पूरे केस को फर्जी बताकर खारिज कर दिया।

श्री मिश्र एक सनातनी परिवार के सदस्य होते हुये भी सामाजिक स्तर पर कोई भेदभाव नहीं रखते थे जातिगत, सांप्रदायिक द्वेष  से रहित श्री मिश्र हमेशा कमजोर एवं असहायों के समर्थक बने रहें। ऐसे व्यक्तित्व का अनुसरण कर समाज को आदर्श रुप दिया जा सकता है।

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