बॉलीवुड और नेतागिरी…

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   संजय पुरबिया

लखनऊ। अपनी प्रसिद्धि को देखते हुए फिल्मों के कलाकार राजनीति में आ तो जाते हैं, पर कम ही लंबी पारी खेल पाने में सफल होते हैं। फिल्म के पर्दे की राजनीतिक दुनिया से एक अपनी अलग ही दुनिया और अलग ही दास्तां है। यहां सफलता पर दर्शकों की तालियों की गूंज बार-बार सुनाई देती है। लेकिन फिल्मी स्टार से नेता बनने के बाद मन में दबी-छुपी आशंकाएं जन्म लेती हैं। ऐसे में अपनों से टकराहट, शिकायत और उलाहने के दौर के बीच की भी एक दुनिया होती है, जहां कई बार कोई साथ नहीं होता। सोचना होगा कि बॉलीवुड और नेतागिरी किस हद तक एक-दूसरे के पूरक है। बॉलीवुड समाज के लिए क्या कर सकता है। वहीं लोकसभा चुनाव  से पहले माहौल को रोचक बनाने में सिनेमा भी कदमताल कर रहा है। अनेक स्टार पुराने चुनावों की तरह इस बार भी चुनावी मैदान में हैं।

हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री को बॉलीवुड के नाम से जाना जाता है। वहीं साउथ की फिल्मों को टॉलीवुड, कॉलीवुड और अमरीकी फिल्मों को हॉलीवुड कहा जाता है। दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने का रिकॉर्ड भारत के नाम है। फिल्म सिर्फ मनोरंजन का साधन ही नहीं है, बल्कि समाज से संवाद का एक बड़ा माध्यम भी है। कई फिल्में सच्ची घटनाओं पर आधारित होती हैं, जो हमें अतीत की झलक देती हैं। सिनेमा लोगों की सोच बदलने में बड़ी भूमिका निभाता है। फिल्में हमें हंसा सकती हैं, रुला सकती हैं, सोचने पर मजबूर कर सकती हैं और हमें प्रेरित कर सकती हैं। यह एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम है, जो लोगों के जीवन को कई तरह से प्रभावित करता है। बॉलीवुड में मशहूर अभिनेताओं के राजनीति में आने की शुरुआत सबसे पहले जवाहर लाल नेहरू के समय में हुयी थी। इंदिरा फाइल्स नाम की बुक में बताया गया है कि कैसे इस समय के शीर्ष नेता ने उस वक्त के जाने-माने अभिनेता दिलीप कुमार का राजनीति में इस्तेमाल किया था। सोशल मीडिया पर उपलब्ध जानीकारी के अनुसार ‘एक बार इनकम टैक्स से संबंधित दिलीप कुमार का कोई केस फंस गया था तो उन्होंने तत्कालीन शीर्ष नेता से मदद मांगी। सुनते हैं कि नेता जी ने उनकी मदद तो कर दी, मगर बदले में उस समय के महाराष्ट्र के नेता से कह दिया कि इनका इस्तेमाल करो। शायद यह पहली बार था जब किसी अभिनेता को राजनीति में शामिल किया गया। लगातार चुनावी प्रचार के लिये दिलीप कुमार को उतारा गया।’ एक दौर ऐसा भी आया जब दिवंगत संजय गांधी ने चुनाव प्रचार के लिए दिलीप कुमार को रायबरेली बुलाया। दिलीप कुमार रायबरेली फुरसतगंज हवाई अड्डे पहुंच गये। वहां पहुंचकर उन्होंने दो घंटे तक इंतजार किया, लेकिन कोई लेने ही नहीं आया। फिर किसी से लिफ्ट लेकर संजय गांधी के पास पहुंचे। वहां जाकर पता चला कि रैली तो अगले दिन है। ऐसे ही कई किस्से हैं। दूसरे अभिनेताओं को भी राजनीति में शामिल किया जाने लगा। फेहरिस्त काफी लंबी है। साल 1975 में इमरजेंसी के समय सदाबहार अभिनेता किशोर कुमार और देवानंद के गाने बैन कर दिये गये थे। इससे देवानंद ने नाराज होकर सरकार के खिलाफ लडऩे के लिये एक राजनीतिक पार्टी बना ली थी। 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद चुनाव से पहले तमाम फिल्मी सितारों ने एकजुट होकर सत्ता बदलने के लिये नेशनल पार्टी का गठन किया था। अभिनेता देवानंद पार्टी के अध्यक्ष थे। साल 1979 में बॉलीवुड की नेशनल पार्टी ने मुंबई के शिवाजी पार्क में पहली रैली की थी। रैली में लोगों का जनसमूह देख तमाम राजनीतिक पार्टियां हैरान रह गयी थी। देवानंद के अलावा शत्रुघन सिन्हा, धर्मेंद्र, हेमामालिनी, संजीव कुमार जैसे अनेक सितारे भी पार्टी से जुड़े थे। हालांकि राजनीतिक दबाव के चलते धीरे-धीरे नेशनल पार्टी में शामिल सभी फिल्मी सितारे किनारा करने लगे। देवानंद अकेले ही पार्टी में रह गये थे।चुनाव से पहले राजनीति से प्रेरित फिल्मों का आना भी नई बात नहीं है? ऐसा इमरजेंसी के समय से देखने को मिल रहा है। हालांकि बदलते समय के साथ अब ऐसा ज्यादा होने लगा है। याद होगा सबसे पहले 1975 में राजनीति से प्रेरित फिल्म ‘आंधी’ रिलीज हुई थी। फिल्म पर इंदिरा गांधी की जिंदगी से जुड़े होने का आरोप लगा था। इमरजेंसी के समय सरकार ने इस फिल्म पर बैन लगा दिया था। इसके अलावा इमरजेंसी के समय एक फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ रिलीज होनी थी। यह फिल्म जनता पार्टी सांसद अमृत नाहटा ने बनायी थी। इस फिल्म के कुछ प्रिंट जला दिये गये थे। उपरोक्त स्थितियां आज भी दिख जाती हैं। सिनेमा और राजनीति में काफी समानता दिखती है, वो इसलिये कि इन दोनों ही दुनिया में सब कुछ असमंजस भरा होता है। एक समय तक जिस फिल्म स्टार की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाती रहती हैं, अचानक कोई एक फ्लॉप फिल्म उसका करियर चौपट कर देती है। यही स्थिति राजनीति में भी है। एक चुनावी हार किसी नेता के राजनीतिक जीवन को रसातल में ले जाती है। दोनों ही दुनिया में सबसे बड़ी भूमिका उन लोगों की होती है जो उन्हें चाहते हैं। फिल्मी दुनिया में ये चाहने वाले दर्शक होते हैं और राजनीति में तथाकथित समर्थक। बीते कई दशकों से फिल्म और राजनीति की दो अलग दुनिया, एक-दूसरे में समाहित होती जा रही हैं। जिस अभिनेता की एक झलक पाने को दर्शक घंटों इंतजार करते थे, वही अभिनेता लोगों से वोट के लिये हाथ जोड़े खड़ा नजर आने लगता है। सिर्फ समाजसेवा की इच्छा रखकर राजनीति में आने वाले सुनील दत्त जैसे अभिनेता तो अब नहीं रहे, जिनके दिल में समाज के प्रति वास्तव में सहानुभूति और दर्द बसता था। लेकिन उनके बाद भी कई फिल्म स्टार्स, जैसे अमिताभ बच्चन, राज बब्बर, शत्रुधन सिन्हा, धर्मेंद्र, हेमामालिनी, जयाप्रदा, जया बच्चन, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, गोविंदा, परेश रावल और मिथुन चक्रवर्ती इत्यादि अपने दौर में राजनीति में आये हैं। इनमें से बहुत कम ही सफल हुये और जो नहीं चल सके, वे वापस लौट गये। यह सवाल आज भी बरकरार है कि आखिर फिल्म कलाकारों का राजनीति में आने का असल मकसद क्या होता है? उनकी अपनी अलग दुनिया है, चाहने वालों की भीड़ है, अथाह पैसा है, फिर उनको राजनीति में ऐसा क्या मिलता है जो पाने की उनकी चाहत खत्म नहीं होती। जहां तक राजनीतिक पार्टियों का सवाल है तो नामी अभिनेताओं के प्रति उनका सिर्फ इतना स्वार्थ होता है कि उन्हें किसी मुश्किल सीट पर आसान जीत के लिए सामने लाया जाता है। नि: संदेह आज ज्यादातर पॉलिटिक्स यूज एंड थ्रो के प्लेटफार्म पर चलती है। आज फिल्मी स्टार सभी दलों की पहली पसंद हैं। ये सिने-स्टार यदि लोक सेवा में जीवन लगाना चाहते हैं तो कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन कटु सत्य है कि फिल्म और राजनीति ये दोनों ही ऐसी दुनिया है कि यदि इनमें संभलकर चलें तो जनता सिर पर बैठाती है, लेकिन जरा चूके तो सारी लोकप्रियता धराशायी होते देर नहीं लगती। यही वजह है कि अपनी प्रसिद्धि को देखते हुये फिल्मों के कलाकार राजनीति में आ तो जाते हैं, पर कम ही लंबी पारी खेल पाने में सफल होते हैं। फिल्म के पर्दे की राजनीतिक दुनिया से एक अपनी अलग ही दुनिया और अलग ही दास्तां है। यहां सफलता पर दर्शकों की तालियों की गूंज बार-बार सुनाई देती है। लेकिन फिल्मी स्टार से नेता बनने के बाद मन में दबी-छुपी आशंकाएं जन्म लेती हैं। ऐसे में अपनों से टकराहट, शिकायत और उलाहने के दौर के बीच की भी एक दुनिया होती है, जहां कई बार कोई साथ नहीं होता। सोचना होगा कि बॉलीवुड और नेतागिरी किस हद तक एक-दूसरे के पूरक हंै। बॉलीवुड समाज के लिए क्या कर सकता है?

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